श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
नवम अध्याय
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय ।
उत्तर- सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति, पालन और संहार आदि के निमित्त भगवान् के द्वारा जितनी भी चेष्टाएँ होती हैं, जिनका पूर्वश्लोक में संक्षेप में वर्णन हो चुका है, ‘उन कर्मों’ से यहाँ उन्हीं सब चेष्टाओं का लक्ष्य है। भगवान् का उन कर्मों में या उनके फल में किसी प्रकार भी आसक्त न होना- ‘आसक्तिरहित रहना’ है; और केवल अध्यक्षता मात्र से प्रकृति द्वारा प्राणियों के गुण-कर्मानुसार उनकी उत्पत्ति आदि के लिये की जाने वाली चेष्टा में कर्तृत्वाभिमान से तथा पक्षपात से रहित होकर निर्लिप्त रहना- ‘उन कर्मों में उदासीन के सदृश स्थित रहना है।’ प्रश्न- भगवान् ने जो अपने को ‘आसक्ति रहित’ और ‘उदासीन के सदृश स्थित’ बतलाया है और यह कहा है कि वे कर्म मुझे नहीं बाँधते, इसका क्या अभिप्राय है? उत्तर- इससे भगवान् यह भाव दिखलाया है कि कर्म और उनके फल में आसक्त न होने एवं उनमें कर्तृत्वाभिमान और पक्षपात से रहित रहने के कारण ही वे कर्म मुझे बाँधने वाले नहीं होते। अन्य लोगों के लिये भी जन्म-मरण, हर्ष-शोक और सुख-दुःख आदि कर्मफलरूप बन्धनों से छूटने का यही सरल उपाय है। जो मनुष्य इस तत्त्व को समझकर इस प्रकार कर्तृत्वाभिमान से और फलासक्ति से रहित होकर कर्म करता है, वह अनायास ही कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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