नवम अध्याय
सम्बन्ध- जब विज्ञानसहित ज्ञान की इतनी महिमा है और इसका साधन भी इतना सुगम है तो फिर सभी मनुष्य इसे धारण क्यों नहीं करते? इस जिज्ञासा पर अश्रद्धा को ही इसमें प्रधान कारण दिखलाने के लिये भगवान् अब इस पर श्रद्धा न करने वाले मनुष्यों की निन्दा करते हैं-
अश्रद्दधाना: पुरुषा धर्मस्यास्य परंतप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि।। 3 ।।
हे परन्तप! इस उपर्युक्त धर्म में श्रद्धारहित पुरुष मुझको न प्राप्त होकर मृत्यु रूप संसार चक्र में भ्रमण करते रहते हैं।। 3 ।।
प्रश्न- ‘अस्य’ विशेषण के सहित ‘धर्मस्य’ पद किस धर्म का वाचक है तथा उसमें श्रद्धा न करना क्या है?
उत्तर- पिछले श्लोक में जिस विज्ञान सहित ज्ञान का माहात्म्य बतलाया गया है और इसके आगे पूरे अध्याय में जिसका वर्णन है, उसी का वाचक यहाँ ‘अस्य’ विशेषण सहित ‘धर्मस्य’ पद है। इस प्रसंग में वर्णन किये हुए भगवान् के स्वरूप, प्रभाव, गुण और महत्त्व को, उनकी प्राप्ति के उपाय को और उसके फल को सत्य न मानकर उसमें असम्भावना और विपरीत भावना करना और उसे केवल रोचक उक्ति समझना आदि जो विश्वासविरोधिनी भावनाएँ हैं- वे ही सब उसमें श्रद्धा न करना है।
प्रश्न- ‘अश्रद्दधानाः’ पद किस श्रेणी के मनुष्यों का वाचक है?
उत्तर- जो लोग भगवान् के स्वरूप, गुण प्रभाव और महत्त्व आदि में विश्वास न होने के कारण भगवान् की उपर्युक्त भक्ति का कोई साधन नहीं करते और अपने दुर्लभ मनुष्य-जीवन को भोगों के भोग और उनकी प्राप्ति के विविध उपायों में ही व्यर्थ नष्ट करते हैं, उनका वाचक यहाँ ‘अश्रद्दधानाः’ पद है।
प्रश्न- श्रद्धारहित पुरुष मुझको न प्राप्त होकर मृत्युरूप संसारचक्र में भ्रमण करते हैं- इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- यह अभिप्राय है कि चौरासी लाख योनियों में भटकते-भटकते कभी भगवान् की दया से जीव को इस संसारचक्र से छूटकर परमेश्वर को प्राप्त करने के लिये मनुष्य का शरीर मिलता है। ऐसे भगवत्प्राप्ति के अधिकारी दुर्लभ मनुष्यशरीर को पाकर भी जो लोग भगवान् के वचनों में श्रद्धा न रखने के कारण भजन-ध्यान आदि साधन नहीं करते, वे भगवान् को न पाकर फिर उसी जन्म-मृत्युरूप संसारचक्र में पड़कर पूर्व की भाँति भटकने लगते हैं।
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