श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- कुन्ती का दूसरा नाम पृथा था। कुन्ती वीरमाता थी। जब भगवान् श्रीकृष्ण दूत बनकर कौरव-पाण्डवों की सन्धि कराने के लिये हस्तिनापुर गये और अपनी बुआ कुन्ती से मिले, उस समय कुन्ती ने श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन को वीरतापूर्ण सन्देश भेजा था, उसमें विदुला और उनके पुत्र संजय का उदाहरण देकर अर्जुन को युद्ध के लिये उत्साहित किया था। अतः यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ‘पार्थ’ नाम से सम्बोधित करके माता कुन्ती के उस क्षत्रियोचित सन्देश की स्मृति दिलाते हुए उपर्युक्त दोनों वाक्यों द्वारा यह सूचित किया है कि तुम वीर जननी के वीर पुत्र हो, तुम्हारे अंदर इस प्रकार की कायरता का संचार सर्वथा अनुचित है। कहाँ महान्-से-महान् महारथियों के हृदयों को कँपा देने वाला तुम्हारा अतुल शौर्य? और कहाँ तुम्हारी यह दीन स्थिति?- जिसमें शरीर के रोंगटे खड़े हैं, बदन काँप रहा है, गाण्डीव गिरा जा रहा है और चित्त विषादमग्न होकर भ्रमित हो रहा है। ऐसी कायरता और भीरुता तुम्हारे योग्य कदापि नहीं है। प्रश्न- यहाँ ‘परन्तप’ सम्बोधन का क्या भाव है? उत्तर- जो अपने शत्रुओं को ताप पहुँचाने वाला हो उसे ‘परन्तप’ कहते हैं। अतः यहाँ अर्जुन को ‘परन्तप’ नाम से सम्बोधित करने का यह भाव है कि तुम शत्रुओं को ताप पहुँचाने वाले प्रसिद्ध हो। निवात कवचादि असीम शक्तिशाली दानवों को अनायास ही पराजित कर देने वाले होकर आज अपने क्षत्रिय स्वभाव के विपरीत इसका पुरुषोचित कायरता को स्वीकार कर उलटे शत्रुओं को प्रसन्न कैसे कर रहे हो? प्रश्न- ‘क्षुद्रम्’ विशेषण के सहित ‘हृदयदौर्बल्यम्’ पद किस भाव का वाचक है? और उसे त्यागकर युद्ध के लिये खड़ा होने के लिये कहने का क्या भाव है? उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुम्हारे जैसे वीर पुरुष के अन्तःकरण में रणभीरु कायर प्राणियों के हृदय में रहने वाली, शूरजनों के द्वारा सर्वथा त्याज्य, इस तुच्छ दुर्बलता का प्रादुर्भाव किसी प्रकार भी उचित नहीं है। अतएव तुरंत इसका त्याग करके तुम युद्ध के लिये डटकर खड़े हो जाओ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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