अष्टम अध्याय
प्रश्न- अनुचिन्तन करना किसे कहते हैं?
उत्तर- अभ्यास में लगे हुए और दूसरी ओर न जाने वाले चित्त के द्वारा परमेश्वर के निराकार स्वरूप का जो निरन्तर ध्यान करते रहना है, इसी को ‘अनुचिन्तन’ कहते हैं।
प्रश्न- यहाँ ‘परमम्’ और ‘दिव्यम्’ इन विशेषणों के सहित ‘पुरुषम्’ इस पद का प्रयोग किसके लिये किया गया है और उसे प्राप्त होना क्या है?
उत्तर- इसी अध्याय के चौथे श्लोक में जिसको ‘अधियज्ञ’ कहा है और बाईसवें श्लोक में जिसको ‘परम पुरुष’ बतलाया है, भगवान् के उस सृष्टि, स्थिति और संहार करने वाले सगुण निराकार सर्वव्यापी अव्यक्त ज्ञानस्वरूप को यहाँ ‘दिव्य परम पुरुष’ कहा गया है। उसका चिन्तन करते-करते उसे यथार्थरूप में जानकर उसके साथ तद्रूप हो जाना ही उसको प्राप्त होना है।
|