श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टम अध्याय
उत्तर- ‘भूत’ शब्द चराचर प्राणियों का वाचक है। इन भूतों के भाव का उद्भव और अभ्युदय जिस त्याग से होता है, जो सृष्टि-स्थिति का आधार है, उस ‘त्याग’ का नाम ही कर्म है। महाप्रलय में विश्व के समस्त प्राणी अपने-अपने कर्म-संस्कारों के साथ भगवान् में विलीन हो जाते हैं। फिर सृष्टि के आदि में भगवान् जब यह संकल्प करते हैं कि ‘मैं एक ही बहुत हो जाऊँ’, तब पुनः उनकी उत्पत्ति होती है। भगवान् का यह ‘आदि संकल्प’ ही अचेतन प्रकृतिरूप योनि में चेतनरूप बीज की स्थापना करना है। यही जड़-चेतन का संयोग है। यही महान् विसर्जन है और इसी विसर्जन या त्याग का नाम ‘विसर्ग’ है। इसी से भूतों के विभिन्न भावों का उद्भव होता है इसीलिये भगवान् ने कहा है- ‘सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत।’[1] ‘उस जड़-चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है।’ यही भूतों के भाव का उद्भव है। अतएव यहाँ यह समझना चाहिये कि भगवान् के जिस आदि संकल्प से समस्त भूतों का उद्भव और अभ्युदय होता है, उसका नाम ‘विसर्ग’ है। और भगवान् के इस विसर्गरूप महान् कर्म से ही जड़-अक्रिय प्रकृति स्पन्दित होकर क्रियाशीला होती है तथा उससे महाप्रलय तक विश्व में अनन्त कर्मों की अखण्ड धारा बह चलती है। इसलिये इस ‘विसर्ग’ का नाम ही ‘कर्म’ है। सातवें अध्याय के उनतीसवें श्लोक में भगवान् ने इसी को ‘अखिल कर्म’ कहा है। भगवान् का यह भूतों के भाव का उद्भव करने वाला महान् ‘विसर्जन’ ही एक महान् समष्टि-यज्ञ है। इसी महान् यज्ञ से विविध लौकिक यज्ञों की उद्भावना हुई है और उन यज्ञों में जो हवि आदि का उत्सर्ग किया जाता है, उसका नाम भी ‘विसर्ग’ ही रखा गया है। उन यज्ञों से भी प्रजा की उत्पत्ति होती है। मनुस्मृति में कहा है- अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते। अर्थात ‘वेदोक्त विधि से अग्नि में दी हुई आहुति सूर्य में स्थित होती है, सूर्य से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न होता है और अन्न से प्रजा होती है।’ यह ‘कर्म’ नामक विसर्ग वस्तुतः भगवान् का ही आदि संकल्प है, इसलिये यह भी भगवान् से अभिन्न ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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