श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तम अध्याय
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
उत्तर- यहाँ भगवान् यह भाव दिखलाते हैं कि मेरी स्थापित की हुई उस श्रद्धा से युक्त होकर वह यथाविधि उस देवता का पूजन करता है, तब उस उपासना के फलस्वरूप उक्त देवता के द्वारा उसे वही इच्छित भोग मिलते हैं जो मेरे द्वारा पहले से ही निर्धारित होते हैं। मेरे विधान से अधिक या कम भोग प्रदान करने की सामर्थ्य देवताओं में नहीं है। अभिप्राय यह है कि देवताओं की कुछ वैसी ही स्थिति समझनी चाहिये जो किसी बड़े राज्य में कानून के अनुसार कार्य करने वाले विभिन्न विभागों के सरकारी अफसरों की होती है। वे किसी को उसके कार्य के बदले में कुछ देना चाहते हैं तो उतना ही दे सकते हैं जितना कानून के अनुसार उसके कार्य के लिये उसको मिलने का विधान है और जितना देने का उन्हें अधिकार है। प्रश्न- इस श्लोक में ‘हितान्’ पद को ‘कामान्’ का विशेषण मानकर यदि यह अर्थ किया जाय कि वे ‘हितकर’ भोगों को देते हैं तो क्या हानि है? उत्तर- ऐसा अर्थ करना उचित नहीं प्रतीत होता, क्योंकि ‘काम’ शब्दवाच्य भोगपदार्थ किसी के लिये यथार्थ में हितकर होते ही नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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