श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तम अध्याय
उत्तर- जो शारीरिक या मानसिक सन्ताप, विपत्ति, शत्रुभय, रोग, अपमान, चोर, डाकू और आततायियों के अथवा हिंस्त्र जानवरों के आक्रमण आदि से घबड़ाकर उनसे छूटने के लिये पूर्ण विश्वास के साथ हृदय की अडिग श्रद्धा से भगवान् का भजन करता है वह आर्त भक्त है। आर्त भक्तों में गजराज, जरासन्ध के बन्दी राजागण आदि बहुत-से माने जाते हैं; परंतु सती द्रौपदी का नाम मुख्यतया लिया जाता है। द्रौपदी राजा द्रुपद की पुत्री थीं; ये यज्ञवेदी से उत्पन्न हुई थीं। इनके शरीर का रंग बड़ा ही सुन्दर श्यामवर्ण था, इससे इन्हें ‘कृष्णा’ कहते थे। द्रौपदी अनन्त गुणवती, बड़ी पतिव्रता, आदर्श गृहिणी और भगवान् की सच्ची भक्ता थीं। द्रौपदी श्रीकृष्ण को पूर्णब्रह्म सच्चिदानन्दघन परमेश्वर समझती थीं, और भगवान् भी उनके सामने अपनी अन्तरंग लीलाओं को भी छिपाकर नहीं रखते थे। जिस वृन्दावन के पवित्र गोपी-प्रेम की दिव्य बातें गोप-रमणियों के पति-पुत्रों तक को मालूम नहीं थीं, उन लीलाओं का भी द्रौपदी को पता था; इसीलिये चीर-हरण के समय द्रौपदी ने भगवान् को ‘गोपी-जनप्रिय’ कहकर पुकारा था। जब दुष्ट दुःशासन दुर्योधन की आज्ञा से एकवस्त्रा द्रौपदी को सभा में लाकर बलपूर्वक उनकी साड़ी खींचने लगा और किसी से भी रक्षा पाने का कोई भी लक्षण न देख द्रौपदी ने अपने को सर्वथा असहाय समझकर अपने परम सहायक, परम बन्धु परमात्मा श्रीकृष्ण का स्मरण किया। उन्हें यह दृढ़ विश्वास था कि मेरे स्मरण करते ही भगवान् अवश्य आवेंगे, मेरी कातर पुकार सुनने पर उनसे कभी नहीं रहा जायगा। द्रौपदी ने भगवान् का स्मरण करके कहा- गोविन्द द्वारकावासिन् कृष्ण गोपीजनप्रिय। ‘हे गोविन्द! हे द्वारकावासिन्! हे श्रीकृष्ण! हे गोपीजनप्रिय! हे केशव! क्या तुम नहीं जान रहे हो कि कौरव मेरा तिरस्कार कर रहे हैं। हे नाथ! हे लक्ष्मीनाथ! हे व्रजनाथ! हे दुःखनाशन! हे जनार्दन! कौरव-समुद्र में डूबती हुई मुझको बचाओ। हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे महायोगिन्! हे विश्वात्मन्! हे विश्वभावनǃ हे गोविन्द! कौरवों के हाथों में पड़ी हुई मुझ शरणागत दुःखिनी की रक्षा करो।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महा. सभा. 68
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