सप्तम अध्याय
प्रश्न- जो केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं- इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर- जो एकमात्र भगवान् को ही अपना परम आश्रय, परमगति, परम प्रिय और परम प्राप्य मानते हैं तथा सब कुछ भगवान् का या भगवान् के ही लिये है- ऐसा समझकर जो शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, गृह, कीर्ति आदि में ममत्व और आसक्ति का त्याग करके, उन सबको भगवान् की पूजा की सामग्री बनाकर तथा भगवान् के रचे हुए विधान में सदा सन्तुष्ट रहकर, भगवान् की आज्ञा के पालन में तत्पर और भगवान् के स्मरणपरायण होकर अपने को सब प्रकार से निरन्तर भगवान् में ही लगाये रखते हैं, वे ही पुरुष निरन्तर भगवान् का भजन करने वाले समझे जाते हैं। इसी का नाम अनन्य शरणागति है। इस प्रकार के शरणागत भक्त ही माया से तरते हैं।
प्रश्न- माया से तरना किसे कहते हैं?
उत्तर- कार्य और कारणरूपा अपरा प्रकृति का ही नाम माया है। मायापति परमेश्वर के शरणागत होकर उनकी कृपा से इस माया के रहस्य को पूर्णरूप से जानकर इसके सम्बन्ध से सर्वथा छूट जाना और मायातीत परमेश्वर को प्राप्त कर लेना ही माया से तरना है।
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