श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तम अध्याय
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत् ।
उत्तर- पिछले श्लोक में जिन भावों का वर्णन किया गया है, यहाँ उन्हीं त्रिविध भावों से जगत् के मोहित होने की बात कही जा रही है। ‘त्रिभिः’ और ‘गुणमयैः’ विशेषणों से यही दिखलाया गया है कि वे सब भाव (पदार्थ) तीनों गुणों के अनुसार तीन भागों में विभक्त हैं और गुणों के ही विकार हैं। एवं ‘जगत्’ शब्द से समस्त सजीव प्राणियों का लक्ष्य कराया गया है, क्योंकि निर्जीव पदार्थों के मोहित होने की बात तो कही ही नहीं जा सकती। अतएव भगवान् के कथन का यहाँ यह अभिप्राय प्रतीत होता है कि ‘जगत् के समस्त देहाभिमानी प्राणी-यहाँ तक कि मनुष्य भी-अपने-अपने स्वभाव, प्रकृति और विचार के अनुसार, अनित्य और दुःखपूर्ण इन त्रिगुणमय भावों को ही नित्य और सुख के हेतु समझकर इनकी कल्पित रमणीयता और सुखरूपता की केवल ऊपर से ही दीखने वाली चमक-दमक में जीवन के परम लक्ष्य को भूलकर, मेरे (भगवान् के) गुण, प्रभाव, तत्त्व, स्वरूप और रहस्य के चिन्तन और ज्ञान से विमुख होकर विपरीत भावना और असम्भावना करके मुझमें अश्रद्धा करते हैं। तीनों गुणों के विकारों में रचे-पचे रहने के कारण उनकी विवेक दृष्टि इतनी स्थूल हो गयी है कि वे विषयों के संग्रह करने और भोगने के सिवा जीवन का अन्य कोई कर्तव्य या लक्ष्य ही नहीं समझते।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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