श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षष्ठ अध्याय
उत्तर- लग सकते हैं और किसी भी कारण से मन-बुद्धि के परमात्मा में लग जाने का फल परम कल्याण ही है। परंतु यहाँ का प्रसंग प्रेमपूर्वक भगवान् में मन-बुद्धि लगाने का है; भय और द्वेषपूर्वक नहीं। क्योंकि भय और द्वेष से जिसके मन-बुद्धि भगवान् में लग जाते हैं, उसको न तो श्रद्धावान् ही कहा जा सकता है और न परम योगी ही माना जा सकता है। इसके बाद सातवें अध्याय के आरम्भ में ही भगवान् ने ‘मय्यासक्तमनाः’ कहकर अनन्य प्रेम का ही संकेत किया है। इसके अतिरिक्त गीता में स्थान-स्थान पर[1] प्रेमपूर्वक ही भगवान् में मन-बुद्धि लगाने की प्रशंसा की गयी है। अतएव यहाँ ऐसा ही मानना उचित है। प्रश्न- यहाँ ‘माम्’ पद भगवान् के सगुणरूप का वाचक है या निर्गुण का? उत्तर- यहाँ ‘माम्’ पद निरतिशय ज्ञान, शक्ति, ऐश्वर्य, वीर्य और तेज आदि के परम आश्रय, सौन्दर्य, माधुर्य और औदार्य के अनन्त समुद्र, परम दयालु, परम सुहृद्, परम प्रेमी, दिव्य अचिन्त्यानन्दस्वरूप, नित्य, सत्य, अज और अविनाशी, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, सर्वदिव्यगुणालंकृत, सर्वात्मा, अचिन्त्य महत्त्व से महिमान्वित चित्र-विचित्र लीलाकारी, लीलामात्र से प्रकृति द्वारा सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने वाले तथा रससागर, रसमय, आनन्दकन्द, सगुण-निर्गुणरूप समग्र ब्रह्म पुरुषोत्तम का वाचक है। प्रश्न- यहाँ ‘भजते’ इस क्रियापद का क्या भाव है? उत्तर- सब प्रकार और सब ओर से अपने मन-बुद्धि को भगवान् में लगाकर परम श्रद्धा और प्रेम के साथ, चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते, प्रत्येक क्रिया करते अथवा एकान्त में स्थित रहते, निरन्तर श्रीभगवान् का भजन-ध्यान करना ही ‘भजते’ का अर्थ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 7। 17; 9। 17; 10। 10
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