श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षष्ठ अध्याय
उत्तर- यहाँ ‘कर्मी’ का प्रयोग इतने व्यापक अर्थ में नहीं हुआ है। सकामभाव से यज्ञ-दानादि शास्त्रविहित क्रिया करने वाले का नाम ही कर्मी है। इसमें क्रिया की बहुलता है। तपस्वी में क्रिया की प्रधानता नहीं, मन और इन्द्रिय के संयम की प्रधानता है और शास्त्रज्ञानी में शास्त्रीय बौद्धिक आलोचना की प्रधानता है। भगवान् ने इसी विलक्षणता को ध्यान में रखकर ही कर्मी में तपस्या और शास्त्रज्ञानी का अन्तर्भाव न करे उनका अलग निर्देश किया है। प्रश्न- इस श्लोक में ‘योगी’ शब्द का क्या अभिप्राय है? उत्तर- ज्ञानयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग आदि किसी भी साधन से साधन की पराकाष्ठा रूप ‘समत्वयोग’ को प्राप्त हुए पुरुष का नाम यहाँ ‘योगी’ है। प्रश्न- ज्ञानयोग और कर्मयोग- ये दो ही निष्ठाएँ मानी गयी हैं; फिर भक्तियोग, ध्यानयोग क्या इनसे पृथक् हैं? उत्तर- भक्तियोग कर्मयोग के ही अन्तर्गत है। जहाँ भक्तिप्रधान कर्म होता है, वहाँ उसका नाम भक्तियोग है और जहाँ कर्मप्रधान है, वहाँ उसे कर्मयोग कहते हैं। ध्यानयोग दोनों ही निष्ठाओं में सहायक साधन है। वह अभेद-बुद्धि से किया जाने पर ज्ञानयोग में और भेद-बुद्धि से किया जाने पर कर्मयोग में सहायक होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |