श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षष्ठ अध्याय
उत्तर- उनकी भी दुर्गति नहीं होती; क्योंकि जिनकी शास्त्रों में और महापुरुषों में श्रद्धा होती है, उन्हें इस बात पर पूर्ण विश्वास हो जाता है कि पापों के फलस्वरूप भयानक दुःखों की और घोर नरक-यन्त्रणाओं की प्राप्ति होगी। इसलिये वे स्वभावदोष से होने वाले पापों से भी बचने की चेष्टा करते रहते हैं। साथ-ही-साथ भजन-ध्यान का अभ्यास चालू रहने से उनके अन्तःकरण की भी शुद्धि होती चली जाती है। ऐसी अवस्था में उनके द्वारा जान-बूझकर पाप किये जाने का कोई खास कारण नहीं रह जाता। अतएव स्वभाववश यदि कोई पापाचारी होते हैं तो सत्संग और भजन-ध्यान के प्रभाव से वे भी पापाचरण से छूटकर शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाते हैं। उनका क्रमशः उत्थान ही होता है, पतन नहीं हो सकता।[1] प्रश्न- ‘तात’ सम्बोधन का यहाँ क्या अभिप्राय है? उत्तर- ‘तात’ सम्बोधन देकर भगवान् ने यहाँ अर्जुन को यह आश्वासन दिया है कि ‘तुम मेरे परम प्रिय सखा और भक्त हो, फिर तुम्हें किस बात का डर है? जब मेरी प्राप्ति के लिये साधन करने वाले की भी दुर्गति नहीं होती, उसे उत्तम गति ही प्राप्त होता है, तब तुम्हारे लिये तो कहना ही क्या है?’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 9। 30-31
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