श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षष्ठ अध्याय
अर्जुन उवाच
उत्तर- पिछले श्लोक में जिसका मन वश में नहीं है, उस ‘असंयतात्मा’ के लिये योग का प्राप्त होना कठिन बतलाया गया है। वही बात अर्जुन के इस प्रश्न का बीज है। इसके सिवा, श्रद्धालु पुरुष द्वारा प्रयत्न न होने की शंका भी नहीं होती; इसी प्रकार वश में किये हुए मन के विचलित होने की शंका नहीं की जा सकती। इन्हीं सब कारणों से ‘प्रयत्न न करने वाला’ अर्थ न करके ‘जिसका मन जीता हुआ नहीं है’ ऐसे साधक के लक्ष्य से ‘असंयमी’ अर्थ किया गया है। प्रश्न- यहाँ ‘योग’ शब्द किसका वाचक है, उससे मन का विचलित हो जाना क्या है? एवं श्रद्धायुक्त मनुष्य के मन का उस योग से विचलित हो जाने में क्या कारण है? उत्तर- यहाँ ‘योग’ शब्द परमात्मा की प्राप्ति के उद्देश्य से किये जाने वाले सांख्ययोग, भक्तियोग, ध्यानयोग, कर्मयोग आदि सभी साधनों से होने वाले समभाव का वाचक है। शरीर से प्राणों का वियोग होते समय जो समभाव से परमात्मा के स्वरूप से मन का विचलित हो जाना है, यही मन का योग से विचलित हो जाना है और इस प्रकार मन के विचलित होने में मन की चंचलता, आसक्ति, कामना, शरीर की पीड़ा और बेहोशी आदि बहुत-से कारण हो सकते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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