षष्ठ अध्याय
प्रश्न- ऐसे परमात्म प्राप्त योगी महापुरुष को समस्त चराचर जगत् के सुख-दुःख का वास्तव में अनुभव होता है अथवा केवल प्रतीति मात्र होती है?
उत्तर- न अनुभव ही कह सकते हैं और न प्रतीति ही। जब उसकी दृष्टि में एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा के सिवा दूसरी किसी वस्तु का अस्तित्व ही नहीं रह गया, तब दूसरा अनुभव तो किस बात का होता? और केवल प्रतीतिमात्र ही होती तो उसके द्वारा दुःख न पहुँचाने और सुख पहुँचाने की चेष्टा ही कैसे बनती? अतएव उस समय उसका वस्तुतः क्या भाव और कैसी दृष्टि होती है? इसको वही जानता है। वाणी के द्वार उसके भाव और दृष्टिकोण को व्यक्त नहीं किया जा सकता। फिर भी समझने के लिये यह कहा जा सकता है कि उसको परमात्मा से भिन्न किसी वस्तु का कभी अनुभव नहीं होता, लोकदृष्टि में केवल प्रतीतिमात्र होती है; तथापि उसके कार्य बड़े ही उत्तम, सुश्रृंखल और सुव्यवस्थित होते हैं।
प्रश्न- यदि वास्तव में अनुभव नहीं होता तो फिर लोकदृष्टि में प्रतीत होने वाले दुःखों की निवृत्ति के लिये उसके द्वारा चेष्टा कैसे होती है?
उत्तर- यही तो उसकी विशेषता है। कार्य का सम्पादन उत्तम-से-उत्तम रूप में हो परंतु न तो उसके लिये यथार्थ में उन कार्यों की सत्ता ही हो और न उसका उनमें कुछ प्रयोजन ही रहे। तथापि स्थूल रूप में समझने के लिये ऐसा कहा जा सकता है कि जैसे बहुत-से छोटे बच्चे खेलते-खेलते तुच्छ और नगण्य कंकड़-पत्थरों, मिट्टी के ढेलों अथवा तिनकों के लिये आपस में लड़ने लगें और अज्ञानवश एक-दूसरे को चोट पहुँचाकर दुःखी हो जायँ तथा जैसे उनके इस झगड़े को सर्वथा व्यर्थ और तुच्छ समझने पर भी बुद्धिमान् पुरुष उनके बीच में आकर उन्हें अच्छी तरह समझावें-बुझावें, उनकी अलग-अलग बातें सुनें और उनकी दुःख निवृत्ति के लिये बड़ी ही बुद्धिमानी के साथ चेष्टा करें, वैसे ही परमात्मा प्राप्त योगी पुरुष भी दुःख में पड़े हुए विश्व की दुःख निवृत्ति के लिये चेष्टा करते हैं। जिन महापुरुषों का जगत् के धन, मान, प्रतिष्ठा, कीर्ति आदि किसी भी वस्तु से कुछ भी प्रयोजन नहीं रहा, जिनकी दृष्टि में कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहा और वस्तुतः जिनके लिये एक परमात्मा को छोड़कर अन्य किसी की सत्ता ही नहीं रह गयी, उनकी अकथनीय स्थिति को किसी भी दृष्टान्त के द्वारा समझना असम्भव है; उनके लिये कोई भी लौकिक दृष्टान्त पूर्णांश में लागू पड़ता ही नहीं। दृष्टान्त तो किसी एक अंश-विशेष को लक्ष्य कराने के लये ही दिये जाते हैं।
प्रश्न- ‘योगी’ के साथ ‘परमः’ विशेषण देने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- ‘परमः’ विशेषण भगवान् यह सूचित करते हैं कि यहाँ जिस ‘योगी’ का वर्णन है, वह साधक नहीं है, ‘सिद्ध’ योगी है। यह स्मरण रखना चाहिये कि परमात्मा को प्राप्त पुरुष में- चाहे वह किसी भी मार्ग से प्राप्त हुआ हो- ‘समता’ अत्यन्त आवश्यक है। भगवान् ने जहाँ-जहाँ परमात्मा को प्राप्त पुरुष का वर्णन किया है, वहाँ ‘समता’ को ही प्रधान स्थान दिया है। किसी पुरुष में अन्यान्य बहुत-से सद्गुण हों, परंतु यदि ‘समता’ न हो, तो यही समझना चाहिये कि उसे परमात्मा के प्राप्ति अभी नहीं हुई है; क्योंकि समता के बिना राग द्वेष का आत्यन्तिक अभाव और सम्पूर्ण प्राणियों में सहज सुहृदयता का भाव नहीं हो सकता। जिनको ‘समता’ प्राप्त है वे ही परमात्मा को प्राप्त श्रेष्ठ योगी हैं।
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