श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षष्ठ अध्याय
प्रश्न- सब भगवान् ही हैं, इस प्रकार का अनुभव हो जाने पर उसके द्वारा लोकोचित यथायोग्य व्यवहार कैसे हो सकते हैं? उत्तर- छूरी, कैंची, कड़ाही, तार, सींकचे, हथौड़े, तलवार और बाण आदि में एक लोहे का प्रत्यक्ष अनुभव होने पर भी जैसे उन सबका यथायोग्य व्यवहार किया जाता है, वैसे ही भगवत्प्राप्त भक्त के द्वारा सर्वत्र और सबमें भगवान् को देखते हुए ही सबके साथ शास्त्रानुकूल यथायोग्य व्यवहार हो सकता है। अवश्य ही साधारण मनुष्यों के और उसके व्यवहार में बहुत बड़े महत्त्व का अन्तर हो जाता है। साधारण मनुष्य के द्वारा दूसरों के साथ बड़ी सावधानी से बहुत अच्छा व्यवहार किये जाने पर भी उसमें भगवद्बुद्धि न होकर परबुद्धि होने से तथा छोटा या बड़ा अपना कुछ-न-कुछ स्वार्थ होने से उसके द्वारा ऐसा व्यवहार होना सम्भव है, जिससे उनका अहित हो जाय; परंतु सर्वत्र सबमें भगवद्दर्शन होते रहने के कारण उस भक्त के द्वारा तो स्वाभाविक ही सबका हित ही होता है। उसके द्वारा ऐसा कोई कार्य किसी भी अवस्था में नहीं बन सकता, जिससे वस्तुतः किसी का किंचित् भी अहित होता हो।[1] प्रश्न- यहाँ भगवान् के सब प्रकार से बरतता हुआ आदि वाक्य का यदि यह अर्थ मान लिया जाय कि ‘वह अच्छा-बुरा, पाप-पुण्य, सब कुछ करता हुआ भी मुझमें ही बरतता है’ तो क्या आपत्ति है? उत्तर- ऐसा अर्थ नहीं माना जा सकता, क्योंकि भगवत्-प्राप्त ऐसे महात्मा पुरुष के द्वारा पापकर्म तो हो ही नहीं सकते। भगवान् ने स्पष्ट कहा है कि ‘समस्त अनर्थों का मूल कारण महापापी काम हैं’[2] और ‘इस कामना की उत्पत्ति आसक्ति से होती है’[3], एवं ‘परमात्मा का साक्षात्कार हो जाने के बाद इस रसरूपी आसक्ति का सर्वथा अभाव हो जाता है।’[4] ऐसी अवस्था में भगवत्प्राप्त पुरुष के द्वारा निषिद्ध कर्मों (पापों) का होना सम्भव नहीं है। इसके सिवा भगवान् के इन वचनों के अनुसार कि ‘श्रेष्ठ पुरुष’ (ज्ञानी) जैसा आचरण करता है, अन्यान्य लोग भी उसी का आचरण करते हैं’[5], ज्ञानी पर स्वाभाविक ही एक दायित्व आ जाता है, इस कारण से भी उसके द्वारा पापकर्मों का बनना सम्भव नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध। निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध।।
- ↑ 3। 37
- ↑ 2। 62
- ↑ 2। 59
- ↑ 3। 21
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