श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षष्ठ अध्याय
युञ्जन्नेवं सदाऽऽत्मानं योगी विगतकल्मष: ।
उत्तर- पिछले श्लोक में ‘अकल्मषम्’ का जो अर्थ किया गया है, वही अर्थ ‘विगतकल्मषः’ का है। ऐसा पापरहित उच्च श्रेणी का साधक, जो अभेद भाव से परमात्मा के स्वरूप का ध्यान करता है, उसी को यहाँ ‘योगी’ बतलाया गया है। प्रश्न- इस प्रकार आत्मा को निरन्तर परमात्मा में लगाने का क्या भाव है? उत्तर- पहले पचीसवें श्लोक में बतायी हुई रीति से दृश्य के चिन्तन से रहित होकर दृढ़निश्चय के साथ साधक का निरन्तर अभेदरूप से परमात्मा में स्थित हो जाना अर्थात् ब्रह्मरूप बना रहना ही उपर्युक्त प्रकार से आत्मा को परमात्मा में लगाना है। प्रश्न- बारहवें अध्याय के पाँचवें श्लोक में तो परमात्मा की प्राप्तिरूप निर्गुणविषयक गति का दुःखपूर्वक प्राप्त होना बतलाया गया है और यहाँ ऐसा कहा गया है कि ‘अव्यक्त परब्रह्म की प्राप्ति सुखपूर्वक हो जाती है’ इसमें क्या कारण है? उत्तर- जिसको ‘मैं देह हूँ’ ऐसा देहाभिमान है, उसको अव्यक्तविषयक गति का प्राप्त होना सचमुच अत्यन्त कठिन है, बारहवें अध्याय में ‘देहवद्भिः’ शब्द से देहाभिमानी को लक्ष्य करके ही वैसा कहा गया है। परंतु यहाँ के साधक के लिये पूर्वश्लोक में ‘ब्रह्मभूत’ होने की बात कहकर भगवान ने स्पष्ट कर दिया है कि जब सांख्ययोग का साधक देहाभिमान से रहित होकर ब्रह्म में स्थित हो जाता है, जब साधक में देहाभिमान नहीं रहता, उसकी ब्रह्म के स्वरूप में अभेदरूप से स्थिति हो जाती है तब उसको ब्रह्म की प्राप्ति सुखपूर्वक होती ही है। अतएव अधिकारिभेद से दोनों ही स्थलों का कथन सर्वथा उचित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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