श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षष्ठ अध्याय
उत्तर- मन जब तक परमात्मा में निरुद्ध होकर सर्वथा तद्रूप नहीं होता अर्थात् जब तक परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो जाती, तब तक मन का ध्येय वस्तु में (परमात्मा में) ही निरन्तर लगे रहना निश्चित नहीं है। इसीलिये तीव्र अभ्यास की आवश्यकता होती है। अतएव भगवान् का यहाँ यह भाव प्रतीत होता है कि साधक जब ध्यान करने बैठे और अभ्यास के द्वारा जब उसका मन परमात्मा में स्थिर हो जाय, तब फिर ऐसा सावधान रहे कि जिसमें मन एक क्षण के लिये भी परमात्मा से हटकर दूसरे विषय में न जा सके। साधक की यह सजगता अभ्यास की दृढ़ता में बड़ी सहायक होती है। प्रतिदिन ध्यान करते-करते ज्यों-ज्यों अभ्यास बढ़े? त्यों-ही-त्यों मन को और भी सावधानी के साथ कहीं न जाने देकर विशेषरूप से विशेष काल तक परमात्मा में स्थिर रखे। प्रश्न- ध्यान के समय मन को परमात्मा के स्वरूप में कैसे लगाना चाहिये? उत्तर- पहले बतलाये हुए प्रकार से अभ्यास करता हुआ साधक एकान्त में बैठकर ध्यान के समय मन को सर्वथा निर्विषय करके एकमात्र परमात्मा के स्वरूप में लगाने की चेष्टा करे। मन में जिस किसी वस्तु की प्रतीति हो, उसको कल्पनामात्र जानकर तुरंत ही त्याग दे। इस प्रकार चित्त में स्फुरित वस्तुमात्र का त्याग करके क्रमशः शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि की सत्ता का भी त्याग कर दे। सबका अभाव करते-करते जब समस्त दृश्य पदार्थ चित्त से निकल जायँगे, तब सबके अभाव का निश्चय करने वाली एकमात्र वृत्ति रह जायगी। यह वृत्ति शुभ और शुद्ध है, परन्तु दृढ़ धारणा के द्वारा इसका भी बाध करना चाहिये या समस्त दृश्य प्रपंच का अभाव हो जाने के बाद यह अपने-आप ही शान्त हो जायगी; इसके बाद जो कुछ बच रहता है, वही अचिन्त्य तत्त्व है। वह केवल है और समस्त उपाधियों से रहित अकेला ही परिपूर्ण है। उसका न कोई वर्णन कर सकता है, न चिन्तन। अतएव इस प्रकार दृश्य-प्रपंच और शरीर, इन्द्रिय, मन‚ बुद्धि और अहंकार का अभाव करके, अभाव करने वाली वृत्ति का भी अभाव करके अचिन्त्य तत्त्व में स्थित होने की चेष्टा करनी चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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