षष्ठ अध्याय
सम्बन्ध- परमात्मा को प्राप्त पुरुष की स्थिति का नाम ‘योग’ है, यह कहकर उसे प्राप्त करना निश्चित कर्तव्य बतलाया गया; अब दो श्लोकों में उसी स्थिति की प्राप्ति के लिये अभेदरूप से परमात्मा के ध्यानयोग का साधन करने की रीति बतलाते हैं-
संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषत: ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्तत: ।। 24 ।।
संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं को नि:शेषरूप से त्यागकर और मन के द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को सभी ओर से भलीभाँति रोककर-।।24।।
प्रश्न- यहाँ कामनाओं को संकल्प से उत्पन्न बतलाया गया है और दूसरे अध्याय के बासठवें श्लोक में कामना की उत्पत्ति आसक्ति बतलायी है। इस भेद का क्या कारण है?
उत्तर- वहाँ संकल्प से आसक्ति की और आसक्ति से कामना की उत्पत्ति बतलायी है। इससे वहाँ भी मूल कारण संकल्प ही है। अतएव वहाँ के और यहाँ के कथन में कोई भेद नहीं है।
प्रश्न- सब कामनाएँ कौन-सी हैं? और उनका निःशेषतः त्याग क्या है?
उत्तर- इस लोक और परलोक के भोगों की जितनी और जैसी-तीव्र, मध्य या मन्द कामनाएँ हैं, यहाँ ‘सर्वान् कामान्’ वाक्य उन सभी का बोधक है। इसमें स्पृहा, इच्छा, तृष्णा, आशा और वासना आदि कामना के सभी भेद आ जाते हैं और इस कामना की उत्पत्ति संकल्प से बतलायी गयी है, इसलिये ‘आसक्ति’ भी इसी के अन्तर्गत आ जाती है? सम्पूर्ण कामनाओं के निःशेषरूप से त्याग का अर्थ है- किसी भी भोग में किसी प्रकार से भी जरा भी वासना, आसक्ति, स्पृहा, इच्छा, लालसा, आशा या तृष्णा न रहने देना। बरतन में से घी निकाल लेने पर भी जैसे उसमें घी की चिकनाहट शेष रह जाती है, अथवा डिबिया में से कपूर, केसर या कस्तूरी निकाल लेने पर भी जैसे उसमें उनकी गन्ध रह जाती है, वैसे ही कामनाओं का त्याग कर देने पर भी उसका सूक्ष्म अंश शेष रह जाता है। उस शेष बचे हुए सूक्ष्म अंश का भी त्याग कर देना-कामना का निःशेषतः त्याग है।
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