श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
प्रथम अध्याय
उत्तर- यहाँ अर्जुन के कथन का यह भाव है कि अवश्य ही दुर्योधनादि का यह कार्य अत्यन्त ही अनुचित है, परंतु उनके लिये ऐसा करना कोई बड़ी बात नहीं है; क्योंकि लोभ ने उनके अन्तःकरण के विवेक को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है। इसलिये न तो वह ये देख पाते हैं कि कुल के नाश से कैसे-कैसे अनर्थ और दुष्परिणाम होते हैं और न उन्हें यही सूझ पड़ता है कि दोनों सेनाओं में एकत्रित बन्धु-बान्धवों और मित्रों का परस्पर वैर करके एक-दूसरे को मारना कितना भयंकर पाप है। पर हम लोग- जो उनकी भाँति लोभ से अन्धे नहीं हो रहे हैं और कुलनाश से होने वाले दोष को भली-भाँति जानते हैं- जान-बूझकर घोर पाप में क्यों प्रवृत्त हों? हमें तो विचार करके इससे हट ही जाना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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