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षष्ठ अध्याय
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वत:।। 21 ।।
इन्द्रियों अतीत, केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनन्द है; उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है जिस अवस्था में यह योगी परमात्मा के स्वरूप से विचलित होता ही नहीं।। 21 ।।
प्रश्न- यहाँ सुख के साथ ‘आत्यन्तिकम्’, ‘अतीन्द्रियम्’ और ‘बुद्धिग्राह्यम्’ विशेषण देने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- अठारहवें अध्याय में छत्तीसवें से उनतालीसवें श्लोक तक जिन सात्त्विक, राजस और तामस, तीन प्रकार के सुखों का वर्णन है, उनसे इस परमात्मस्वरूप सुख की अत्यन्त विलक्षणता दिखलाने के लिये ही उपर्युक्त विशेषण दिये गये हैं। परमात्मस्वरूप सुख सांसारिक सुखों की भाँति क्षणिक, नाशवान्, दुःखों का हेतु और दुःख मिश्रित नहीं होता। वह सात्त्विक सुख की अपेक्षा भी महान् और विलक्षण है, सदा एकरस रहने वाला और नित्य है; क्योंकि वह परमात्मा का स्वरूप ही है, उससे भिन्न कोई दूसरा पदार्थ नहीं है। यही भाव दिखलाने के लिये ‘आत्यन्तिकम्’ विशेषण दिया गया है। वह सुख विषयजनित राजस सुख की भाँति इन्द्रियों द्वारा भोगा जाने वाला नहीं है, वह इन्द्रियातीत परब्रह्म परमात्मा ही यहाँ सुख के नाम से कहे गये हैं- यही भाव दिखलाने के लिये ‘अतीन्द्रियम्’ विशेषण दिया गया है। वह सुख स्वयं ही नित्य ज्ञानस्वरूप है। माया की सीमा से सर्वथा अतीत होने के कारण बुद्धि वहाँ तक नहीं पहुँच सकती तथापि जैसे मलरहित स्वच्छ दर्पण में आकाश का प्रतिबिम्ब पड़ता है, वैसे ही भजन-ध्यान और विवेक-वैराग्यादि के अभ्यास से अचल, सूक्ष्म और शुद्ध हुई बुद्धि में उस सुख का प्रतिबिम्ब पड़ता है। इसीलिये उसे ‘बुद्धिग्राह्य’ कहा गया है। परमात्मा के ध्यान से होने वाला सात्त्विक सुख भी, इन्द्रियों से अतीत, बुद्धिग्राह्य और अक्षय सुख में हेतु होने से अन्य सांसारिक सुखों की अपेक्षा अत्यन्त विलक्षण है। किन्तु वह केवल ध्यानकाल में ही रहता है, सदा एकरस नहीं रहता; और वह चित्त की ही एक अवस्था विशेष होती है, इसलिये उसे ‘आत्यन्तिक’ या ‘अक्षय सुख’ नहीं कहा जा सकता। परमात्मा का स्वरूप भूत यह सुख तो उस ध्यानजनित सुख का फल है। अतएव यह उससे अत्यन्त विलक्षण है। इस प्रकार तीन विशेषण देकर यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि सात्त्विक सुख की भाँति यह सुख अनुभव में आने वाला नहीं है। यह तो ध्याता, ध्यान और ध्येय की एकता हो जाने पर अपने-आप प्रकट होने वाले परमात्मा का स्वरूप ही है।
प्रश्न- ‘तत्त्व से विचलित न होने’ का क्या तात्पर्य है और यहाँ ‘एव’ का प्रयोग किस अभिप्राय से हुआ है?
उत्तर- ‘तत्त्व’ शब्द परमात्मा के स्वरूप का वाचक है और उससे कभी अलग न होना ही-विचलित नहीं होना है। ‘एव’ से यह भाव निकलता है कि परमात्मा का साक्षात्कार हो जाने पर योगी की उनमें सदा के लिये अटल स्थिति हो जाती है फिर वह कभी किसी भी अवस्था में, किसी भी कारण से, परमात्मा से अलग नहीं होता।
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