पंचम अध्याय
प्रश्न- ‘प्राक्शरीरविमोक्षणात्’ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- इससे यह बतलाया गया है कि शरीर नाशवान् है- इसका वियोग होना निश्चित है और यह भी पता नहीं कि यह किस क्षण में नष्ट हो जायगा; इसलिये मृत्युकाल उपस्थित होने से पहले-पहले ही काम-क्रोध पर विजय प्राप्त कर लेनी चाहिये, साथ ही साधन करके ऐसी शक्ति प्राप्त कर लेनी चाहिये जिससे कि बार-बार घोर आक्रमण करने वाले ये काम-क्रोध-रूपी महान् शत्रु अपना वेग उत्पन्न करके जीवन में कभी विचलित ही नहीं कर सकें। जैसे समुद्र में सब नदियों के जल अपने-अपने वेग सहित विलीन हो जाते हैं, वैसे ही ये काम-क्रोधादि शत्रु अपने वेगसहित विलीन होकर नष्ट ही हो जायँ-ऐसा प्रयत्न करना चाहिये।
प्रश्न- काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग क्या हैं और उन्हें सहन करने में समर्थ होना किसे कहते हैं?
उत्तर- (पुरुष के लिये) स्त्री, (स्त्री के लिये) पुरुष (दोनों ही के लिये) पुत्र, धन, मकान या स्वर्गादि जो कुछ देखे-सुने हुए मन और इन्द्रियों के विषय हैं, उनमें आसक्ति हो जाने के कारण उनको प्राप्त करने की जो इच्छा होती है, उसका नाम ‘काम’ है और उसके कारण अन्तःकरण में होने वाले नाना प्रकार के संकल्प-विकल्पों का जो प्रवाह है, वह काम से उत्पन्न होने वाला ‘वेग’ है। इसी प्रकार मन, बुद्धि और इन्द्रियों के प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति होने पर अथवा इष्ट-प्राप्ति की इच्छा पूर्ति में बाधा उपस्थित होने पर उस स्थिति के कारण भूत पदार्थ या जीवों के प्रति द्वेषभाव उत्पन्न होकर अन्तःकरण में जो ‘उत्तेजना’ का भाव आता है, उसका नाम ‘क्रोध’ है; और उस क्रोध के कारण होने वाले नाना प्रकार के संकल्प-विकल्पों का जो प्रवाह है, वह क्रोध से उत्पन्न होने वाला वेग है। इन वेगों को शान्तिपूर्वक सहन करने की अर्थात् इन्हें कार्यान्वित न होने देने की शक्ति प्राप्त कर लेना ही इनको सहन करने में समर्थ होना है।
प्रश्न- यहाँ ‘युक्तः’ विशेषण किसके लिये दिया गया है?
उत्तर- बार-बार आक्रमण करके भी काम-क्रोधादि शत्रु जिसको विचलित नहीं कर सकते- इस प्रकार जो काम-क्रोध के वेग को सहन करने में समर्थ है, उस मन-इन्द्रियों को वश में रखने वाले सांख्ययोग के साधक पुरुष के लिये ही ‘युक्तः’ विशेषण दिया गया है?
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