पंचम अध्याय
प्रश्न- यहाँ ‘नवद्वारे पुरे आस्ते’ अर्थात् ‘नौ द्वारों वाले शरीररूप पुर में रहता है’ ऐसा अन्वय न करके ‘नवद्वारे पुरे सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्य’ अर्थात् ‘नौ द्वार वाले शरीररूप पुर में सब कर्मों को मन से छोड़कर’ इस प्रकार अन्वय क्यों किया गया?
उत्तर- नौ द्वार वाले शरीररूप पुर में रहने का प्रतिपादन करना सांख्ययोगी के लिये कोई महत्त्व की बात नहीं है, बल्कि उसकी स्थिति के विरुद्ध है। शरीररूप पुर में साधारण मनुष्य की भी स्थिति है ही, इसमें महत्त्व की कौन-सी बात हैं? इसके विरुद्ध शरीररूप पुर में यानी इन्द्रियादि प्राकृतिक वस्तुओं में कर्मों के त्याग का प्रतिपादन करने से सांख्ययोगी का विशेष महत्त्व प्रकट होता है; क्योंकि सांख्ययोगी ही ऐसा कर सकता है, साधारण मनुष्य नहीं कर सकता। अतएव जो अन्वय किया गया है, वही ठीक है।
प्रश्न- यहाँ इन्द्रियादि के कर्मों को इन्द्रियादि में छोड़ने के लिये न कहकर नौ द्वार वाले शरीर में छोड़ने के लिये क्यों कहा?
उत्तर- दो आँख, दो कान, दो नासिका और एक मुख, ये सात ऊपर के द्वार तथा उपस्थ और गुदा, ये दो नीचे के द्वार-इन्द्रियों के गोलकरूप इन नौ द्वारों का संकेत किये जाने से यहाँ वस्तुतः सब इन्द्रियों के कर्मों को इन्द्रियों में ही छोड़ने के लिये कहा गया है। क्योंकि इन्द्रियादि समस्त कर्मकारकों का शरीर ही आधार है, अतएव शरीर में छोड़ने के लिये कहना कोई दूसरी बात नहीं है। जो बात आठवें और नवें श्लोक में कही गयी हे, वही यहाँ कही गयी है। केवल शब्दों का अन्तर है। वहाँ इन्द्रियों की क्रियाओं का नाम बतलाकर कहा है, यहाँ उनके स्थानों की ओर संकेत करके कहा है। इतना ही भेद है। भाव में कोई भेद नहीं है।
प्रश्न- यहाँ मन से कर्मों को छोड़ने के लिये कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- स्वरूप से सब कर्मों का त्याग कर देने पर मनुष्य की शरीर यात्रा भी नहीं चल सकती। इसलिये मन से- विवेक-बुद्धि के द्वारा कर्तव्य-कारयितृत्व का त्याग करना ही सांख्ययोगी का त्याग है, इसी भाव को स्पष्ट करने के लिये मन से त्याग करने के लिये कहा है।
प्रश्न- श्लोकार्थ में कहा गया है- वह ‘सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है’ परन्तु मूल श्लोक में ऐसी कोई बात नहीं आयी है; फिर अर्थ में यह वाक्य ऊपर से क्यों जोड़ा गया?
उत्तर- ‘आस्ते’ स्थिर रहता है, इस क्रिया को आधार की आवश्यकता है। मूल श्लोक में उसके उपयुक्त शब्द न रहने पर भाव से अध्याहार कर लेना उचित ही है। यहाँ सांख्ययोगी का प्रकरण है और सांख्ययोगी वस्तुतः सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में ही सुखपूर्वक स्थित हो सकता है, अन्यत्र नहीं। इसीलिये ऊपर से यह वाक्य जोड़ा गया है।
|