चतुर्थ अध्याय
प्रश्न- यहाँ पापों से तरने की बात कहने का क्या भाव है, क्योंकि सकाम भाव से किये हुए पुण्यकर्म भी तो मनुष्य को बाँधने वाले हैं?
उत्तर- पुण्यकर्म भी सकाम भाव से किये जाने पर बन्धन के हेतु होते हैं; अतः समस्त कर्म बन्धनों से सर्वथा छूटने पर ही समस्त पापों से तर जाता है, यह ठीक ही है। किंतु पुण्यकर्मों का त्याग करने में तो मनुष्य स्वतन्त्र है ही, उनके फल का त्याग तो वह जब चाहे तभी कर सकता है; परंतु ज्ञान के बिना पापों से तर जाना उसके हाथ की बात नहीं है। इसलिये पापों से तरना कह देने से पुण्य कर्मों के बन्धन से मुक्त होने की बात उसके अन्तर्गत ही आ जाती है।
प्रश्न- ज्ञानरूप नौका के द्वारा सम्पूर्ण पाप समुद्र से भली-भाँति तर जाना क्या है?
उत्तर- जिस प्रकार नौका में बैठकर मनुष्य अगाध जलराशि पर तैरता हुआ उसके पार चला जाता है, उसी प्रकार ज्ञान में स्थित होकर (ज्ञान के द्वारा) अपने को सर्वथा संसार से असंग, निर्विकार, नित्य और अनन्त समझकर पहले के अनेक जन्मों में तथा इस जन्म में किये हुए समस्त पाप समुदाय को जो अतिक्रमण कर जाना है- अर्थात् समस्त कर्म बन्धनों से सदा के लिये सर्वथा मुक्त हो जाना है, यही ज्ञानरूप नौका के द्वारा सम्पूर्ण पाप समुदाय से भली-भाँति तर जाना है।
प्रश्न- इस श्लोक में ‘एव’ पद का क्या भाव है?
उत्तर- ‘एव’ पद यहाँ निश्चय के अर्थ में है। उसका भाव यह है कि काठ की नौका में बैठकर जलराशि पर तैरने वाला मनुष्य तो कदाचित् उस नौका के टूट जाने से या उसमें छेद हो जाने अथवा तूफान आने से नौका के साथ-ही-साथ स्वयं भी जल में डूब सकता है। पर यह ज्ञान रूप नौका नित्य है; इसका अवलम्बन करने वाला मनुष्य निःसन्देह पापों से तर जाता है, उसके पतन की जरा भी आशंका नहीं रहती।
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