चतुर्थ अध्याय
प्रश्न- पुत्र का माता-पितादि की सेवा करना, स्त्री का पति की सेवा करना, शिष्य का गुरु की सेवा करना और इसी प्रकार शास्त्र विहित अन्यान्य शुभ कर्मों का करना यज्ञार्थ कर्म करने के अन्तर्गत है या नहीं और उनको करने वाला सनातन ब्रह्म को प्राप्त हो सकता है या नहीं।
उत्तर- उपर्युक्त सभी कर्म स्वधर्म-पालन के अन्तर्गत हैं, अतएव जब स्वधर्म-पालनरूप यज्ञ की परम्परा सुरक्षित रखने के लिये परमेश्वर की आज्ञा मानकर निःस्वार्थ भाव से किये जाने वाले युद्ध और कृषि-वाणिज्यादिरूप्स कर्म भी यज्ञ के अन्तर्गत हैं और उनको करने वाला मनुष्य भी सनातन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है, तब माता-पितादि गुरुजनों को, गुरु को और पति को परमेश्वर की मूर्ति समझकर या उनमें परमात्मा को व्याप्त समझकर अथवा उनकी सेवा करना अपना कर्तव्य समझकर उन्हीं को सुख पहुँचाने के लिए जो निःस्वार्थ से उनकी सेवा करना है, वह यज्ञ के लिये कर्म करना है और उससे मनुष्य को सनातन ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है- इसमें तो कहना ही क्या है?
प्रश्न- इस प्रकरण में जो भिन्न-भिन्न यज्ञों के नाम से भिन्न-भिन्न प्रकार के साधन बतलाये गये हैं, वे ज्ञानयोगी के द्वारा किये जाने योग्य हैं या कर्मयोगी के द्वारा?
उत्तर- चौबीसवें श्लोक में जो ब्रह्मयज्ञ’ और पचीसवें श्लोक के उत्तरार्द्ध में जो आत्मा-परमात्मा का अभेद दर्शनरूप यज्ञ बतलाया गया है, उन दोनों का अनुष्ठान तो ज्ञानयोगी ही कर सकता है, कर्मयोगी नहीं सकता; क्योंकि उनमें साधक परमात्मा से भिन्न नहीं रहता। उनको छोड़कर शेष सभी यज्ञों का अनुष्ठान ज्ञानयोगी और कर्मयोगी दोनों ही कर सकते हैं, उनमें दोनों के लिये ही किसी प्रकार की अड़चन नहीं है।
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