श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सर: ।
उत्तर- अनिच्छा से या परेच्छा से प्रारब्धानुसार जो अनुकूल या प्रतिकूल पदार्थ की प्राप्ति होती है, वह ‘यदृच्छालाभ’ है; इस ‘यदृच्छालाभ’ में सदा ही आनन्द मानना, न किसी अनुकूल पदार्थ की प्राप्ति होने पर उसमें राग करना, उसके बने रहने या बढ़ने की इच्छा करना; और न प्रतिकूल की प्राप्ति में द्वेष करना, उसके नष्ट हो जाने की इच्छा करना और दोनों को ही प्रारब्ध या भगवान् का विधान समझकर निरन्तर शान्त और प्रसन्नचित्त रहना- यही ‘यदृच्छालाभ’ में सदा सन्तुष्ट रहना है। प्रश्न- ‘विमत्सरः’ का क्या भाव है और इसका प्रयोग यहाँ किसलिये किया गया है? उत्तर- विद्या, बुद्धि, धन, मान, बड़ाई या अन्य किसी भी वस्तु या गुण के सम्बन्ध से दूसरों की उन्नति देखकर जो ईर्ष्या (डाह) का भाव होता है- इस विकार का नाम ‘मत्सरता’ है; उसका जिसमें सर्वथा अभाव हो गया हो, वह ‘विमत्सर’ है। अपने को विद्वान् और बुद्धिमान् समझने वालों में भी ईर्ष्या का दोष छिपा रहता है; जिनमें मनुष्य का प्रेम होता है, ऐसे अपने मित्र और कुटुम्बियों के साथ भी ईर्ष्या का भाव हो जाता है। इसलिये ‘विमत्सरः’ विशेषण का प्रयोग करके यहाँ कर्मयोगी में हर्ष-शोकादि विकारों से अलग ईर्ष्या के दोष का भी अभाव दिखलाया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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