श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
संजय उवाच
उत्तर - ‘इति’ पद से यहाँ गीता के उपदेश की समाप्ति दिखलायी गयी है। प्रश्न - भगवान् के ‘वासुदेव’ नाम का प्रयोग करके और ‘पार्थ’ के साथ ‘महात्मा’ विशेषण देकर क्या भाव दिखलाया गया है? उत्तर - इससे संजय ने गीता का महत्त्व प्रकट किया है। अभिप्राय यह है कि साक्षात् नर ऋषि के अवतार महात्मा अर्जुन के पूछने पर सबके हृदय में निवास करने वाले सर्वव्यापी परमेश्वर श्रीकृष्ण के द्वारा यह उपदेश दिया गया है, इस कारण यह बड़े ही महत्त्व का है। दूसरा कोई भी शास्त्र इसकी बराबरी नहीं कर सकता, क्योंकि यह समस्त शास्त्रों का सार है।[1] प्रश्न - यहाँ ‘संवादम्’ पद के साथ ‘अद्भुतम्’ और ‘रोमहर्षणम्’ विशेषण देने का क्या भाव है? उत्तर - इन दोनों विशेषणों का प्रयोग करके संजय ने यह भाव दिखलाया है कि यह महात्मा अर्जुन के पूछने पर साक्षात् परमेश्वर के द्वारा कहा हुआ उपदेश बड़ा ही अद्भुत अर्थात् आश्चर्यजनक और असाधारण है; इससे मनुष्य को भगवान् के दिव्य आलौकिक गुण, प्रभाव और ऐश्वर्ययुक्त समग्ररूप का पूर्णज्ञान हो जाता है तथा मनुष्य इसे जैसे-जैसे सुनता और समझता है वैसे-ही-वैसे हर्ष और आश्चर्य के कारण उसका शरीर पुलकित हो जाता है, उसके समस्त शरीर में रोमांच हो जाता है। प्रश्न - ‘अश्रौषम्’ पद का क्या भाव है? उत्तर - इससे संजय ने यह भाव दिखलाया है कि ऐसे अद्भुत आश्चर्यमय उपदेश को मैंने सुना, यह मेरे लिये बड़े ही सौभाग्य की बात है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रसंग है:। या स्वयं पद्भनाभस्य मुखपद्भद्विनिः सृता।। (महा., भीष्म. 43।1)’
‘गीता का ही सम्यक् प्रकार से श्रवण-कीर्तन, पठन-पाठन, मनन और धारण करना चाहिये, अन्य शास्त्रों के संग्रह से क्या प्रयोजन है? क्योंकि यह स्वयं पद्मनाभ भगवान् विष्णु के मुखकमल से निकली है।’
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