श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
उत्तर- जिन परमेश्वर के सगुण-निर्गुण, निराकार-साकार आदि अनेक रूप हैं; जो अर्जुन के सामने श्रीकृष्ण रूप में प्रकट होकर गीता का उपदेश सुना रहे हैं; जिन्होंने रामरूप में प्रकट होकर संसार में धर्म की मर्यादा का स्थापन किया और नृसिंहरूप धारण करके भक्त प्रह्लाद का उद्धार किया-उन्हीं सर्वशक्तिमान, सर्वगुणसम्पन्न, अन्तर्यामी, परमाधार, समग्र पुरुषोत्तम भगवान् का वाचक यहाँ ‘माम्’ पद है। उनके किसी भी रूप को, चित्र को चरण-चिह्नों को या चरणपादुकाओं को तथा उनके गुण, प्रभाव और तत्त्व का वर्णन करने वाले शास्त्रों को साष्टांग प्रणाम करना या समस्त प्राणियों में उनको व्याप्त या समस्त प्राणियों को भगवान् का स्वरूप समझकर सबको प्रणाम करना भगवान को नमस्कार करना है। इसका भी विस्तार नवें अध्याय के अन्तिम श्लोक में देखना चाहिये। प्रश्न- ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि उपर्युक्त प्रकार से साधन करने के उपरान्त तू अवश्य ही मुझ सच्चिदानन्दघन सर्वशक्तिमान परमेश्वर को प्राप्त हो जायगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। भगवान् को प्राप्त होना क्या है, यह बात भी नवें अध्याय के अन्तिम श्लोक की व्याख्या में बतलायी गयी है। प्रश्न- मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, इसका क्या भाव है? उत्तर- अर्जुन भगवान् के प्रिय भक्त और सखा थे, अतएव उन पर प्रेम और दया करके उनका अपने ऊपर अतिशय दृढ़ विश्वास कराने के लिये और अर्जुन के निमित्त से अन्य अधिकारी मनुष्यों का विश्वास दृढ़ कराने के लिये भगवान् ने उपर्युक्त वाक्य कहा है। अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त प्रकार से साधन करने वाला भक्त मुझे प्राप्त हो जाता है, इस बात पर दृढ़ विश्वास करके मनुष्य को वैसा बनने के लिये अधिक-से-अधिक चेष्टा करनी चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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