श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
उत्तर- उस कर्म को सात्त्विक कहते हैं- इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि जिस कर्म में उपर्युक्त समस्त लक्षण पूर्ण रूप से पाये जाते हों, वही कर्म पूर्ण सात्त्विक है। यदि उपर्युक्त भावों में से किसी भाव की कमी हो, तो उसकी सात्त्विकता में उतनी कमी समझनी चाहिये। इसके सिवा इससे यह भाव भी समझना चाहिये कि सत्त्वगुण से और सात्त्विक कर्म से ही ज्ञान उत्पन्न होता है; अतः परमात्मा के तत्त्व को जानने की इच्छा वाले मनुष्यों को उपर्युक्त सात्त्विक कर्मों का ही आचरण करना चाहिये, राजस-तामस कर्मों का आचरण करके कर्मबन्धन में नहीं पड़ना चाहिये। प्रश्न- इस श्लोक में बतलाये हुए सात्त्विक कर्म में और नवें श्लोक में बतलाये हुए सात्त्विक त्याग में क्या भेद है? उत्तर- इस श्लोक में सांख्यनिष्ठा की दृष्टि से सात्त्विक कर्म के लक्षण किये गये हैं, इस कारण ‘संगरहितम्’ पद से उनमें कर्तापन के अभिमान का और ‘अरागद्वेषतः’ पद से राग-द्वेष का भी आभाव दिखलाया गया है। किन्तु नवें श्लोक में कर्मयोग की दृष्टि से किये जाने वाले कर्मों में आसक्ति और फलेच्छा के त्याग का नाम ही सात्त्विक त्याग बतलाया गया है; इस कारण वहाँ कर्तापन के आभाव की बात नहीं कही गयी है, बल्कि कर्तव्य बुद्धि से कर्मों को करने के लिये कहा है। यही इन दानों का भेद है। दोनों का ही फल तत्त्वज्ञान के द्वारा परमात्मा की प्राप्ती है; इस कारण इनमें वास्तव में भेद नहीं है, केवल अनुष्ठान के प्रकार का भेद है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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