श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तदश अध्याय सम्बन्ध- इस प्रकार ‘तत्’ नाम के प्रयोग की बात कहकर अब परमेश्वर के ‘सत्’ नाम के प्रयोग की बात दो श्लोकों में कही जाती है- सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते ।
उत्तर- ‘सद्भाव’ नित्य भाव का अर्थात् जिसका अस्तित्व सदा रहता है उस अविनाशी तत्त्व का वाचक है, और वही परमेश्वर का स्वरूप है। इसलिये उसे ‘सत्’ नाम से कहा जाता है। प्रश्न- ‘साधुभाव’ किस भाव का वाचक है और उसमें परमात्मा के ‘सत्’ नाम का प्रयोग क्यों किया जाता है? उत्तर- अन्तः करण का जो शुद्ध और श्रेष्ठ-भाव है, उसका वाचक यहाँ ‘साधुभाव’ है। वह परमेश्व की प्राप्ति का हेतु है, इसलिये उसमें परमेश्वर के ‘सत्’ नाम का प्रयोग किया जाता है अर्थात् उसे ‘सद्भाव’ कहा जाता है। प्रश्न- ‘प्रशस्त कर्म’ कौन-सा कर्म है और उसमें ‘सत्’ शब्द का प्रयोग क्यों किया जाता है? उत्तर- जो शास्त्रविहित करने योग्य शुभकर्म है, वही प्रशस्त- श्रेष्ठ कर्म है और वह निष्काम भाव से किये जाने पर परमात्मा की प्राप्ती का हेतु है, इसलिये उसमें परमात्मा के ‘सत्’ नाम का प्रयोग किया जाता है, अर्थात् उसे ‘सत् कर्म’ कहा जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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