श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी85. शान्तिपुर में अद्वैताचार्य के घर
इधर नित्यानंद जी लोगों को प्रभु के आने का समाचार सुनाते हुए शचीमाता के समीप पहुँचे। उस समय माता पुत्रविछोहरूपी आक्रान्त हुई ब्रहोशी के सहित आहें भर रही थीं। नित्यानंद जी ने माता के चरण-स्पर्श किये। माता ने चौंककर देखा कि सामने नित्यानंद खड़े हैं। अत्यंत ही अधीरता के साथ माता कहने लगी- ‘बेटा निताई! तू अपने भाई निमाई को कहाँ छोड़ आया? तू तो मुझसे प्रतिज्ञा करके गया था कि मैं निमाई को साथ लेकर आऊँगा? वह कितनी दूर है? उसे तू पीछे क्यों छोड़ आया? तू तो संग लाने के लिये कह गया था। मेरा निमाई कहाँ है? बेटा! मुझे जल्दी से बता दे। तेरे ही कहने से मैंने अब तक प्राण रखे हैं। अब तू मुझे जल्दी बता दे। कहीं तू भी तो मुझे निमाई की तरह धोखा नहीं देता? तू सच-सच बता दे निमाई कहाँ है? मैं वहीं जाऊँगी, तू मुझे अभी उसी देश में ले चल, जहाँ मेरा निमाई हो। ‘उपवासों से क्षीण हुई दु:खिनी माता को धैर्य बंधाते हुए नित्यानंद जी ने कहा- ‘माता! तुम इतनी अधीर मत हो। मैं तुम्हारे निमाई को साथ ही लेकर आया हूँ। वे शांतिपुर में अद्वैताचार्य के घर पर हैं। उन्होंने तुम्हें वहीं बुलाया है, मैं तुम्हें वहीं ले चलूँगा।’ ‘निमाई शांतिपुर है’ इतना सुनते ही मानो माता के गये हुए प्राण फिर से शरीर में लौट आये। वह अधीर होकर कहने लगी- ‘बेटा! मुझे शांतिपुर ले चल! मैं जब तक निमाई को देख न लूँगी, तब तक मुझे शांति न होगी।’ नित्यानंद जी ने देखा कि माता चिरकाल के उपवासों से अत्यंत ही क्षीण हो गयी हैं। उन्होंने निमाई के जाने के दिन से आज तक अन्न का दर्शन तक नहीं किया है। ऐसी दशा में यदि इन्हें प्रभु के समीप ले चलेंगे तो इन्हें महान दु:ख होगा; इसलिये इन्हें जैसे भी बने तैसे आग्रहपूर्वक थोड़ा-बहुत भोजन कराना चाहिये। यह सोचकर उन्होंने कहा- ‘माता! मैं तो भूख के मारे मरा जा रहा हूँ। जब तक तुम्हारे हाथ का बना हुआ भोजन न पाऊँगा, तब तक मेरी तृप्ति न होगी। इसलिये जल्दी से दाल-भात बनाकर मुझे खिला दो, तब तक प्रभु के समीप चलेंगे। मुझे से तो भूख के कारण चला भी नहीं जाता।’ नित्यानंद जी की ऐसी बात सुनकर कुछ शंकित-चित्त से माता ने कहा- ‘निताई! तू मुझे छल तो नहीं रहा है? मुझे भोजन कराने के निमित्त ही तो, निमाई के शांतिपुर आने का बहाना नहीं कर रहा है? तू मुझे सत्य-सत्य बता दे निमाई कहाँ है?’ नित्यानंद जी के माता के चरणों को स्पर्श करते हुए कहा- ‘माता! मैं तुम्हारे चरणों को स्पर्श करके कहता हूँ कि मैं तुम्हे ठग नहीं रहा हूँ। प्रभु फुलिया होकर शांतिपुर मेरे सामने गये हैं और मुझे तुम्हे लाने के लिये ही नवद्वीप भेजा है।’ |