श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी83. श्रीकृष्ण-चैतन्य
वैराग्यविद्यानिजभक्तियोग- संन्यास के मानी हैं अग्निमय जीवन। पिछले जीवन की सभी बातों का ज्ञानग्नि में जलाकर स्वयं अग्निमय बन जाना- यही इस महान व्रत का आदर्श है। संसार की एकदम उपेक्षा कर दो, जीवमात्र में मैत्री के भाव रखो और सम्पूर्ण संसारी सम्बन्धों और परिग्रहों का परित्याग करके भगवन्नामनिष्ठ होकर वैराग्यरागरसिक बन जाओ। संसारी सभी बातों को हृदय से निकालकर फेंक दो। सत्त्वगुण के स्वरूप सफेद वस्त्रों का भी परित्याग कर दो और रज, तम, सत्त्व से भी ऊपर उठकर त्रिगुणातीतबनकर महान सत्त्व में सदा स्थिर रहो। इसीलिये संन्यासी के वस्त्र अग्निवर्ण के होते हैं। क्योंकि उसने जीवित रहने पर भी यह शरीर अग्नि को सौंप दिया है, वह ‘नारायण’ के अतिरिक्त किसी दूसरे को देखता ही नहीं है। इसीलिये संन्यास के समय पूर्वाश्रम के नाम को भी त्याग देते हैं और गुरुदत्त महाप्रकाशरूपी नवीन नाम से इस शरीर का संकेत करते हैं। वास्तव में तो संन्यासी नामरुप से रहित ही बन जाता है। महाप्रभु का क्षोर-कर्म समाप्त हुआ। अब वे शिखा सूत्रहीन हो गये। क्षौर हो जाने के पश्चात प्रभु ने सुरसरि के शीतल जल में घुसकर स्नान किया और वस्त्र बदले हुए वे वेदी के समीप आ गये। हाथ जोडे़ हुए अति दीनभाव से वे भारती जी के सम्मुख बैठ गये। भारती जी विजयाहवन आदि सभी संन्यासोचित कर्म कराकर प्रभु को मन्त्र-दीक्षा देने का विचार किया। हाथ जोडे़ हुए विनीतभाव से प्रभु ने संन्यास-मन्त्र ग्रहण करने की जिज्ञासा की। भारती जी ने इन्हें अपने समीप बैठ जाने के लिये कहा। गुरुदेव के आज्ञानुसार प्रभु उनके समीप बैठ गये। मन्त्र देने में भारती जी कुछ आगा-पीछा-सा करने लगे। तब महाप्रभु ने उत्सुकता प्रकट होते हूए पूछा- ‘भगवन्! मैंने ऐसा सुना है कि संन्यास के मन्त्र को किसी के सामने कहना न चाहिये।’ यह सुनकर प्रभु ने कहा- ‘मुझे आपसे एक बात निवेदन करनी है, किंतु वह गुप्त बात है, कान में ही कह सकूँगा।’ भारती जी ने अपना दायाँ कान प्रभु की ओर बढा़ते हुए कहा- ‘हाँ-हाँ, जरूर कहो। कौन-सी बात है?’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिस पुराणपुरुष ने जीवों को अपनी अहैतु की भक्ति और वैराग्य-विद्या आदि सिखाने के निमित्त ‘श्रीकृष्ण-चैतन्य’ नामवाला शरीर धारण किया है, उन कृपा के सागर श्री चैतन्यदेव की हम शरण में जाते हैं। चै. चन्द्रो. ना. 6/74