श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी89. पुरी के पथ में
गोस्वामी तुलसीदास जी ने सज्जन और दुर्जन के समागम की तुलना करते हुए कहा है- बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दारुन दुख देहीं।। सचमुच अपने प्रियजन के बिछोह के समय तो सहृदय पुरुषों को मरण-समान ही दु:ख होता है। जिसके साथ इतने दिनों तक हास-परिहास, भोजन-पान आदि किया, जो निरन्तर अपने सहवास-सुख का आनन्द पहुँचाता रहा, वही अपना प्यारा प्रियतम आज सहसा हमसे न जाने कब तक के लिये पृथक हो रहा है, इस बात के स्मरण मात्र से सहृदय सज्जनों के हृदय में भारी क्षोभ उत्पन्न होने लगता है। किन्तु उस दु:ख में भी मीठा-मीठा मजा हैं, उसका आस्वादन भावुक प्रेमी पुरुष ही कर सकते हैं। संसारी स्वार्थपूर्ण पुरुषों के भाग्य में वह सुख नही बदा है। दस दिनों तक भक्तों के चित को आनन्दित कराते रहने के अनन्तर आज प्रभु शान्तिपुर को परित्याग करके पुरी के पथिक बन जायँगें, इस बात के स्मरण मात्र से सभी परिजन और पुरजनों के हृदय में प्रभु के वियोगजन्य दुख की पीड़ा-सी होने लगी। सभी के चेहरों पर विषण्ण्ाता छायी हुई थी। प्रभु ने कुछ अन्यमनस्क भाव से अपने ओढ़ने का रँगा वस्त्र उठाया, लंगोटी को कमर से बांध लिया और छोटी-सी साफी सिर से लपेट ली। एक हाथ में दण्ड लिया और दूसरे में कमण्डलु लेकर प्रभु उस बैठक से बाहर हुए प्रभु को यात्री के वेष में देखकर उपस्थित सभी भक्त फूट-फूटकर रोने लगे। वृद्धा शची माता का तो दिल ही धड़कने लगा। जगदानन्द ने प्रभु के हाथ से दण्ड ले लिया और दामोदर पण्डित ने कमण्डलु। अब प्रभु के दोनों हाथ ख़ाली हो गये। उन दोनों हाथों से वृद्धा माता के चरणों को स्पर्श करते हुए प्रभु ने गदगद कण्ठ से कहा- 'माता ! मुझे ऐसा आशीर्वाद दो कि मैं अपने सन्यांस-धर्म का विधिवत पालन कर सकूँ।' पता नहीं उस समय पुत्र स्नेह से दु:खी हुई माता को इतना साहस कहाँ से आ गया? उसने अपने प्यारे पुत्र के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- बेटा ! तुम्हारा पथ मंगलमय हो, वायु तुम्हारे अनुकुल रहे, तुम अपने धर्म का विधिवत पालन कर सको।' इतना कहते-कहते ही माता का गला भर आया, आगे वह और कुछ न कह सकी। उसी अवस्था में रोती हुई अपनी माता की प्रभु ने प्रदक्षिणा की और दोनों हाथों को जोड़कर वे नि:स्पृहभाव से गंगा जी के किनारे-किनारे पुरी की ओर चल पड़े। सैकड़ों भक्त आंसू बहाते हुए और आर्तनाद करते हुए प्रभु के पीछे-पीछे चले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अपने प्राणप्यारे के परदेश प्रयाण करते समय उसके वियोग से उतपन्न हुई वेदना को व्यक्त करती हुई नायिका पति से कह रही है, विदा के अन्तिम समय का वर्णन है। प्रियतम पूछते हैं-अच्छा, जाउं? उतर देती है-'मत जाओ' इस अमंगलसूचक शब्द को यात्रा के शुभ मुहुर्त में कैसे मुख से निकालूं ? यह कहूँ कि 'अच्छा जाओ' तो यह स्नेहहीन शब्द है। यदि कहूँ 'रुक जाओ' तो इसमें प्रभुता प्रदर्शित होती है। और यह कह दूं कि 'जैसी आपकी इच्छा हो वैसा करें' तो इससे उदासीनता प्रकट होती है। यदि यह कह दूं कि 'तुम्हारे बिना मैं जीवित न रह सकूंगी' तो पता नहीं तुमको इस बात पर विश्वास हो अथवा न हो। इसीलिये मेरे प्राणनाथ ! तुम्हीं मुझे भिक्षा दो कि तुम्हारे प्रस्थान के समय क्या कहना उपयुक्त होगा, इस समय मैं किस वाक्य का प्रयोग करुं?