श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी142. श्री सनातन को शास्त्रीय शिक्षा
अथ स्वस्थाय देवाय नित्याय हतपाप्मने। महाप्रभु की असीम कृपा प्राप्त हो जाने पर श्री सनातन जी को कुछ शास्त्रीय प्रश्न पूछने की जिज्ञासा हुई। उन्होंने दोनों हाथों की अंजलि बांधे हुए कहा-'प्रभो! मैं साधनविहीन, परमार्थ-पथ से अनभिज्ञ और संसारी विषयी लोगों का संसर्ग करने वाला परमार्थ सम्बन्धी प्रश्न करना भी नहीं जानता। अतः जिस प्रकार आपने ही दया करके विषयों में आसक्त हुए हम पशुओं को घर जाकर सोते-से जगा दिया, उसी प्रकार अब हमारे इस पशुपने को मेटकर मनुष्यता प्रदान कीजिये, हमारे योग्य जो शिक्षा उचित समझें वही मुझे दीजिये। हम कौन हैं? हमारा क्या कर्तव्य है? भगवान के साथ हमारा क्या सम्बन्ध है? भगवान का क्या स्वरूप है आदि सभी बातों को मुझे संक्षेप में समझा दीजिये।' प्रभु ने कहा- 'सनातन! तुम पर भगवत-कृपा है। तुम्हें शंका ही क्या हो सकती है? तुम जानते हुए भी लोक कल्याण के निमित्त ये प्रश्न कर रहे हो। अस्तु, साधु पुरुषों का यह स्वभाव ही होता है। उनकी सभी चेष्टाएं जगत-हित के ही निमित्त होती हैं, पूछो, तुम क्या पूछना चाहते हो?' 'प्रभो! मैं यह जानना चाहता हूँ कि जीवों में यह विभिन्नता प्रतीत होती है, वह क्यों होती है।' प्रभु ने कहा- 'सनातन! शास्त्रों में मुक्त, नित्य, मुमुक्षु और बद्ध- ये चार प्रकार के जीव बताये हैं। सनक-सनन्दनादि ये मुक्त जीव हैं, इन्हें संसार में रहते हुए भी संसार-बन्धन कभी व्याप नहीं सकता। ये अहर्निश श्रीकृष्ण-संकीर्तन में ही संलग्न रहते हैं। मनु, प्रजापति, इन्द्र और सप्तर्षि आदि सभी नित्य जीव हैं, सृष्टि के निमित्त ये सदा क्रियाशील बने रहते हैं। जो इस अनित्य संसार के नश्वर और क्षणभंगुर भोगों को छोड़ कर प्रभुपादपद्मों का आश्रय ग्रहण करना चाहते हैं वे मुमुक्षु जीव हैं। उनमें प्रायः सभी परमार्थ-पथ के पथियों की गणना हो सकती है। इनके अतिरिक्त जो स्वभाव के ही अनुसार जन्मते और मरते रहते हैं, जिन्हें कर्तव्या कर्तव्य का विवेक नहीं, वे बद्ध जीव कहाते हैं। विषयों में फंसे हुए अज्ञानी पुरुष, पशु, पक्षी आदि सभी जीव इसी श्रेणी में हैं, ये साधन-भजन नहीं कर सकते। उन्हीं के लिये कहा है- पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्। शास्त्रों में जीवों की चौरासी लाख योनियाँ बतायी गयी हैं। भगवत-पादपद्मों से पृथक होकर प्राणी इन नाना योनियों में परिभ्रमण करता रहता है। चिरकाल से भगवत-विच्छेद होने के कारण इसकी वृत्ति बहिर्मुख हो गयी है, यह माया पति को भूलकर माया के बन्धन में पड़ गया है और भगवान की अत्यन्त ही दुरूह गुणमयी दैवी माया उसे नाना योनियों में घुमाती रहती है।' सनातन जी ने पूछा- 'प्रभो! इसे माया से छूटकारा कैसे हो? जब जीव माया के अधीन ही होकर घूमता है, तब तो उसके निस्तार का कोई उपाय ही नहीं।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो सदा अपने में ही स्थिर रहते हैं, जो नित्य हैं, जिन्होंने पापों का नाश कर दिया है, जिनके लिये कोई विधि-निषेध का विभाग नहीं है ऐसे ज्योतिःस्परूप श्री चैतन्य प्रभु को हमारा प्रणाम है। सु. र. भां. 1।1