श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी64. जगाई-मधाई का उद्धार
सचमुच में जिसका हृदय कोमल है, जो सभी प्राणियों को प्रेम की दृष्टि से देखता है, जिसकी बुद्धि घृणा और द्वेष के कारण मलिन नहीं हो गयी है, परोपकार करना जिसका व्यसन ही बन गया है, ऐसा साधु पुरुष यदि सच्चे हृदय से किसी घोर पापी-से-पापी का भी कल्याण चाहे तो उसके धर्मात्मा बनने में संदेह ही नहीं। महात्माओं की स्वाभाविक इच्छा अमोघ होती है, यदि वे प्रसन्नतापूर्वक किसी के ओर देखभर लें, बस, उसी समय उसका बेड़ा पार है। साधुओं के साथ खोटी बुद्धि से किया हुआ संग भी व्यर्थ नहीं होता। साधुओं से द्वेष रखने वालों का भी कल्याण ही होते देखा गया है, यदि पापी के ऊपर किसी अपराध के कारण कभी क्रोध न करने वाले महात्माओं को दैवात क्रोध आ गया तब तो उसका सर्वस्व ही नाश हो जाता है, किंतु प्राय: महात्माओं को क्रोध कभी नाममात्र को ही आता है, वे अपने अहित करने वाले का भी सदा हित ही करते हैं। प्रहार करने पर भी वे वृक्षों की भाँति सुस्वादु फल ही प्रदान करते हैं, क्योंकि उनका हृदय दया से परिपूर्ण होता है। इतने घोर पापी दोनों भाई जगाई-मधाई के ऊपर नित्यानन्द जी की कृपा हो गयी, उनके हृदय में इन दोनों के उद्धार के निमित्त चिन्ता हो उठी, मानों इन दोनों के पापों के अन्त होने का समय आ गया। जिस दिन इन दोनों को अवधूत नित्यानन्द और महात्मा हरिदास जी के दर्शन हुए, उसी दिन इनके शुभ दिनों का श्रीगणेश हो गया। संयोगवश अब उन्होंने उसी मुहल्ले में अपना डेरा डाला, जहाँ महाप्रभु का घर था। मुहल्ले के सभी लोग डर गये। एक-दूसरे से कहने लगे- ‘अब इन कीर्तन वालों पर आपत्ति आयी। ये दोनों राक्षस भाई जरूर कीर्तन करने वालो से छेड़खानी करेंगे।' कोई-कोई कीर्तन-विरोधी कहने लगे- ‘अजी! अच्छा है। ये कीर्तन वाले रात्रि भर सोने ही नही देते थे। इनके कोलाहल के कारण रात्रि में नींद ही नही आती। अच्छा हैं, अब सुख से तो सो सकेंगे।' कोई-कोई अपने अनुमान से कहते- ‘बहुत सम्भव है, अब ये कीर्तन करने वाले लोग स्वयं ही कीर्तन बंद कर देंगे और न बंद करेंगे तो अपने किये का मजा चखेंगे।’ इस प्रकार लोग भाँति-भाँति के तर्क करने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ साधुओं का शरीर ही तीर्थस्वरूप है, उनके दर्शन से ही पुण्य होता है। साधुओं में और तीर्थों में एक बड़ा भारी अन्तर है, तीर्थों में जाने का फल तो कालान्तरमें मिलता है, किंतु साधुओं के समागम का फल तत्काल ही मिल जाता है। अत: सच्चे साधुओं का सत्संग तो बहुत दूर की बात है, उनका दर्शन ही कोटि तीर्थों से अधिक होता है। सु. र. भां. 90/7