श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी163. प्रेम की अवस्थाओं का संक्षिप्त परिचय
लोक मर्यादा को मेटकर मोहन से मन लगाने को मनीषियों ने प्रेम कहा है। प्रेम के लक्षण में इतना ही कहना यथेष्ट है कि– प्रेमैव गोपरामाणां काम इत्यगमत् प्रथाम्। अर्थात ‘गोपियों के शुद्ध प्रेम को ही ‘काम’ के नाम से पुकारने की परिपाटी पड़ गयी है।’ इससे यही तात्पर्य निकला कि प्रेम में इन्द्रियसुख की इच्छाओं को एकदम अभाव होता है। क्योंकि गोपिकाओं के काम में किसी प्रकार के अपने शरीर सुख की इच्छा नहीं थी। वे जो कुछ करती थीं केवल श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के निमित्त। इसलिये शुद्ध प्रेम इन्द्रिय और उनके धर्मों से परे की वस्तु है। इसी को ‘राग’ के नाम से भी पुकारते हैं। इस ‘काम’, ‘प्रेम’ अथवा राग के तीन भेद हो सकते हैं– पूर्वराग, मिलन और विछोह या विरह। जिसके हृदय में प्रेम उत्पन्न हो जाता है उसे घर-द्वार, कुटुम्ब-परिवार, संसारी विषय-भोग कुछ भी नहीं सुहाते। सदा अपने प्यारे का ही चिन्तन बना रहता है। प्रेमी की दशा उस पुरुष की सी हो जाती है जिसे अपने प्राणों से अत्यन्त ही मोह हो और उसे फांसी के लिये कारावास के फाँसी घर में बन्द कर रखा हो; जिस प्रकार प्राणों के भय से उसकी क्रियाएँ और चेष्टाएँ होती हैं, उसी प्रकार चेष्टाएँ रागी की अथवा प्रेमी की भी होती हैं। रागमार्ग के उपासक वैष्णवों ने अपने ग्रन्थों में इन सब दशाओं का बड़े विस्तार के साथ वर्णन किया है। इस संकुचित स्थल में न तो उनका उल्लेख ही हो सकता है और न यहाँ उनके उल्लेख का कुछ विशेष प्रयोजन ही दिखायी देता है। इस सम्बन्ध में अष्ट सात्त्विक विकारों का बहुत उल्लेख आता है और वे ही अत्यन्त प्रसिद्ध भी हैं, अत: यहाँ बहुत ही संक्षेप में पहले उन्हीं आठ विकारों का वर्णन करते हैं। वे आठ ये हैं– स्तम्भ, कम्प, स्वेद, वैवर्ण्य, अश्रु, स्वरभंग, पुलक और प्रलय। ये भय, शोक, विस्मय, क्रोध और हर्ष की अवस्था में उत्पन्न होती हैं। प्रेम के लिये ही इन भावों को ‘सात्त्विक विकार’ कहा गया है। अब इनकी संक्षिप्त व्याख्या सुनिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मनुष्य लोक में निष्कपट प्रेम तो हो ही नहीं, कदाचित किसी को हो भी जाय तो उसे प्रेम का सारभूत विरह प्राप्त नहीं होता। यदि विरह भी प्राप्त हो जायगा तो फिर वह जीवित तो कदापि रह ही नहीं सकता। श्री रूपगोस्वामी भी कहते है– भुक्तिमुक्तिस्पृहा यावत् पिशाची हृदि वर्तते। तावद् भक्तिसुखस्यात्र कथमभ्युदयो भवेत्।। अर्थात जब तक भुक्ति और मुक्ति की इच्छारूपिणी पिशाची हृदय में बैठी हुई है तब तक वहाँ भक्ति सुख की उत्पत्ति कैसे हो सकती है?’