श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी75. संन्यास से पूर्व
तत् साधु मन्येऽसुरवर्य देहिनां महाप्रभु का मन अब महान त्याग के लिये तड़पने लगा। उनके हृदय में वैराग्य की हिलोंरे-सी मारने लगीं। यद्यपि महाप्रभु को घर में भी कोई बन्धन नहीं था, यहाँ रहकर वे लाखों नर-नारियों का कल्याण कर रहे थे। किंतु इतने से ही वे संतुष्ट होने वाले नहीं थे। उन्हें तो भगवन्नाम को विश्वव्यापी बनाना था, फिर ये अपने को नवद्वीप का ही बनाकर और किसी एक पत्नी का पति बनाकर कैसे रख सकते थे? वे तो सम्पूर्ण विश्व की विभूति थे। भगवद्भक्तमात्र के वे पूजनीय तथा वन्दनीय थे। ऐसी दशा में उनका नवद्वीप में ही रहना असम्भव था। संसारी सुख, धन-सम्पत्ति और कीर्ति- ये पूर्वजन्म के भाग्य से ही मिलते हैं। जिसके भाग्य में धन अथवा कीर्ति नहीं होती, वह चाहे कितना भी परिश्रम क्यों न करे, कितने भी अच्छे-अच्छे भावों का प्रचार उसके द्वारा क्यों न हो उसे धन या कीर्ति मिल ही नहीं सकती। राजा युद्ध में शायद ही कभी लड़ने जाते है, नहीं तो घर में ही बैठा रहता हैं। सेना में बड़े-बड़े़ वीर योद्धा साहस और शूरवीरता के साथ युद्ध करते हैं, प्राणों की बाजी लगाकर लाखों एक-से-एक बढ़कर पराक्रम दिखाते हुए शत्रु के दांतों को खट्टा करते हैं, किंतु उनकी शूरवीरता का किसी को पता ही नहीं लगता। विजय का सुयश घर में बैठे हुए राजा को ही प्राप्त होता है। एक चर्मकार का परिवार दिनभर काम करता है, उसके छोटे-से-बच्चे से लेकर बडे़-बूढे़, स्त्री-पुरुष दिन-रात्रि काम में ही जुटे रहते हैं, फिर भी उन्हें खाने को पूरा नहीं पड़ता। इसके विपरीत दूसरा महाजन पलंग से नीचे भी जब उतरता है, तो बहुत-से सेवक उसके आगे-आगे बिछौना बिछाते चलते हैं। उसके मुनीम दिन-रात्रि परिश्रम करते हैं, उन्हीं के द्वारा उसे हजारों रुपये रोज की आमदनी है। किंतु उन मुनीमों को महीनों में गिने हुए पंद्रह-बीस रूपये ही मिलते हैं। उस सब आमदनी का स्वामी वह कुछ न करने वाला महाजन ही समझा जाता है। इसलिये किसी के धन अथवा बढ़ती हुई कीर्ति को देखकर कभी इस प्रकार का द्वेष नहीं करना चाहिये कि हम इससे बढ़कर काम करते हैं तब भी हमारा इतना नाम क्यों नहीं होता? यह तो अपने-अपने भाग्य की बात है। तुम्हारे भाग्य में उतनी कीर्ति है ही नहीं, फिर तुम कितने भी बड़े काम क्यों न करो, कीर्ति उसी की अधिक होगी जो तुम्हारी दृष्टि में तुमसे कम काम करता है। तुम उसके भाग्य की रेखा को तो नहीं मेट सकते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिरण्यकशिपु के यह पूछने पर कि बेटा! तुम्हारे मत में सबसे श्रेष्ठ कार्य कौन-सा है? प्रह्लाद जी कहते हैं- ‘हे असुरों के अधीश्वर पूज्य पिताजी! मैं तो इसे ही सबसे अधिक श्रेष्ठ समझता हूँ कि ‘अहंता और ममता’ अर्थात् मैं ऐसा हूँ, वह चीजें मेरी हैं इस मिथ्याभिमान के कारण जिनकी बुद्धि सदा उद्विग्न रहती है और जिस घर में रहकर सदा प्राणी मोह में ही फंसा रहता है, उस अन्धकूप के समान गृह को त्यागकर एकान्त में जाकर श्रीहरि के चरणों का चिन्तन किया जाय। मेरे मत में तो इससे श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं है।’ श्रीमद्भा. 7/5/5