श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी161. श्री रघुनाथ भट्ट को प्रभु की आज्ञा
परमहंस रामकृष्ण देव एक कथा कहा करते थे– ‘एक बगीचें में बहुत से साधु पड़े हुए थे। वहाँ एक परम सुन्दरी स्त्री दर्शनों के लिये गयी। सभी साधु परम विरक्त थे, उन सबके गुरु आजन्म ब्रह्मचारी थे, इसलिये उन्होंने शिष्य भी ऐसे ही किये कि जिन्होंने जन्म से ही संसारी सुख न भोगा हो। व सभी स्त्रीमुख से अनभिज्ञ थे। इसलिये उनके मन में उस माता के दर्शन से किसी प्रकार का विकार नहीं हुआ। उनमें से एक ने पहले स्त्रीमुख भोगा था, इसलिये उस माता के दर्शन से उसकी छिपी हुई कामवासना जाग्रत हो उठी। वह विषय सुख की की इच्छा करने लगा। इस कथा को कहकर वे कहते– ‘देखो, जिस वर्तन में एक बार दही जम चुका है, उसमे दूध के फटने का सन्देह ही बना रहता है, जो घडा कोरा है उसमें कोई भय नहीं। इसी प्रकार जो विषय सुख से बचे हुए है, वे कोरे घडे के समान हैं।’ इसके उदाहरण में वे अपने युवक भक्तों में से नरेन्द्र (विवेकानन्द) आदि का दृष्टान्त देकर कहते– ‘सर्वोत्तम तो यही है कि संसारी विषयों से एकदम दूर रहा जाय। विषय ही बन्धन के हेतु हैं।’ महाप्रभु चैतन्यदेव भी जिसे वासनाहीन अधिकारी समझते उसे संसार में प्रवेश करने को मना कर देते और आजन्म ब्रह्मचारी रहकर श्रीकृष्ण- कीर्तन करने का ही उपदेश देते। विरक्त भक्तों को तो वे स्त्रियों से तनिक भी संसर्ग न रखने की शिक्षा देते रहते। स्वयं कभी भी न तो स्त्रियों की ओर आँख उठाकर देखते और न उनके अंग का ही कभी स्पर्श करते। एक दिन की बात है कि आप टोटा यमेश्वर को जा रहे थे। उसी समय रास्ते में एक देवदासी कन्या अपने कोकिलकूजित कमनीय कण्ठ से महाकवि जयदेव के अमर काव्य गीत गोविन्द के पद को गाती जा रही थी। वसन्त का सुहावना समय था, नारीकण्ठ की मधुरिमा से मिश्रित उस त्रैलोक्य पावन पद को सुनते ही प्रभु का मनमयूर नृत्य करने लगा। उनके काना में– चन्दनचर्चितनीलकलेवरपीतवसनवनमाली। -यह पदावली एक प्रकार की मादकता का संचार करने लगी। अपने प्रियतम के ऐसे सुन्दर स्वरूप का वर्णन सुनते ही वे प्रेम में विह्वल हो गये और कानों में सुधा का संचार करने वाले उस व्यक्ति को आलिंगन करने के लिये दौड़े। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दारा संसार को उत्पन्न करने वाली है। संसारी बन्धुजन संसार बन्धन को बढ़ाने वाले हैं। इन्द्रियों के रूप, रस, स्पर्शादि विषय विष के समान परमार्थ से मृत्यु प्राप्त कराने वाले हैं। मोहरूपी मदिरा को पान करके जो पुरुष उन्मत्त न हो गया हो उसे छोड़कर कौन ऐसा पुरुष होगा जो इन परमार्थ के शत्रुओं से सुहृदपने की आशा रखेगा? सु. र. भा. 388।136
- ↑ एक सखी दूसरी सखी से कह रही है– ‘सखि ! देख तो सही, इन श्री हरि की कैसी अपूर्व शोभा है ! नील रंग के सुकोमल कलेवर पर सुगन्धित चन्दन लगा हुआ है, शरीर में पीले वस्त्र पहने हैं, गले में मनोहर वनमाला पड़ी हुई है। रासक्रीड़ा के समय कांचनमय मकर कुण्डल हिल हिलकर कमनीय कपोलों को अधिक शोभायुक्त बना रहे हैं और वे मन्द-मन्द मुसकाते हैं।’