श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी96. सार्वभौम और गोपीनाथाचार्य
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वर:। इसी संसार-सागर में डूबते हुए निराश्रित जीवों के गुरुदेव ही एकमात्र आश्रय हैं। गुरुदेव ही बहते हुए, डूबते हुए, बिलखते हुए, अकुलाते हुए, बिलबिलाते हुए, अचेतन हुए जीवों को भव-वारिधि से बाँह पकड़कर बाहर निकाल सकने में समर्थ हो सकते हैं। त्रैलोक्यपावन गुरुदेव की कृपा के बिना जीव इस अपार दुर्गम पयोधि के पार जा ही नहीं सकता। वे अखिल विश्व-ब्रह्माण्डों के विधाता विश्वम्भर ही भाँति-भाँति के रूप धारण करके गुरुरूप से जीवों को प्राप्त होते हैं और उन्हीं के पादपद्मों का आश्रय ग्रहण करके मुमुक्षु जीव बात-की-बात में इस अपार उदधि को तर जाते हैं। किसी मनुष्य की सामर्थ्य ही क्या है जो एक भी जीव का वह विस्तार कर सके? जीवों का कल्याण तो वे ही परमगुरु श्रीहरि ही कर सकते हैं। इसीलिये मनुष्य गुरु हो ही नहीं सकता। जगद्गुरु तो वे ही श्रीमन्नारायण हैं, वे ही जिस जीव को संसार-बन्धन से छुड़ाना चाहते हैं, उसे गुरुरूप से प्राप्त होते हैं। अन्य साधारण बद्ध जीवों की दृष्टि में तो वह रुप साधारण जीवों की ही भाँति प्रतीत होता है; किन्तु जो अनुग्रह-सृष्टि के जीव हैं, जिन्हें वे श्रीहरि स्वंय ही कृपापूर्वक वरण करना चाहते हैं उन्हें उस रूप में साक्षात श्रीसनातन पूर्णब्रह्म के दर्शन होते हैं। इसीलिये गुरु, भक्त और भगवान -ये मूल में एक ही पदार्थ के लोकभावना के अनुसार तीन नाम रख दिये गये हैं। वास्तव में इन तीनों में कोई अन्तर नहीं। इस भाव को अनुग्रह-सृष्टि के ही जीव समझ सकते हैं। अन्य जीवों के वश की यह बात नहीं है। गोपीनाथाचार्य हृदय प्रधान पुरुष थे। उनके ऊपर भगवान की यथेच्छ कृपा थी। उनका हृदय अत्यधिक कोमल था। भावुकता की मात्रा उनमें कुछ अधिक थी, महाप्रभु के पादपद्मों में उनकी अहैतु की प्रीति थी। वे महाप्रभु के श्रीविग्रह में अपने श्रीमन्नारायण के दर्शन करते थे। उनके लिये प्रभु का पांचभौतिक नश्वर शरीर नहीं के बराबर था। वे उसमें सनातन, सत्य, सगुण, परब्रह्म का अविनाशी आलोक देखते थे और उसी भाव उनकी पूजा-अर्चा करते थे। वे अनुग्रह-सृष्टि के जीव थे, भगवान के अपने जन थे, उनके नित्य पार्षद थे। एक दिन गोपीनाथाचार्य प्रभु को जगन्नाथ जी के शयनोत्थान के दर्शन कराकर लौटे। लौटते समय वे मुकुन्ददतत्त के साथ सार्वभौम महाशय के घर चले गये। सार्वभौम भट्टाचार्य ने अपने बहनोई का यथोचित सत्कार किया और मुकुन्ददत्त के सहित उन्हें बैठने के लिये आसन दिया। आचार्य के बैठ जाने पर इधर-उधर की बातें होती रहीं। अन्त में महाप्रभु जी का प्रसंग छिड़ गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गुरु ही ब्रह्मा, गुरु ही विष्णु हैं, गुरु ही महेश्वर हैं और गुरु ही साक्षात परब्रह्म हैं। ऐसे गुरुदेव को बार-बार प्रणाम है। बृ. स्तों. र.