श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी56. हरिदास की नाम-निष्ठा
रामनाम जपतां कुतो भयं जप, तप, भजन, पूजन तथा लौकिक, पारलौकिक सभी प्रकार के कार्यों में विश्वास ही प्रधान है। जिसे जिस पर जैसा विश्वास जम गया उसे उसके द्वारा वैसा ही फल प्राप्त हो सकेगा। फल का प्रधान हेतु विश्वास ही है। विश्वास के सम्मुख कोई बात असम्भव नहीं। असम्भव तो अविश्वास का पर्यायवायी शब्द है। विश्वास के सामने सभी कुछ सम्भव है। विश्वास के ही सहारे चरणामृत मानकर मीरा विष-पान कर गयी, नामदेव ने पत्थर की मूर्ति को भोजन कराया। धन्ना भगत के बिना बोया ही खेत उपज आया और रैदास जी ने भगवान की मूर्ति को सजीव करके दिखला दिया। ये सब भक्तों के दृढ़ विश्वास के ही चमत्कार हैं। जिनकी भगवन्नाम पर दृढ़ निष्ठा है, उन्हें भारी-से-भारी विपत्ति भी साधारण-सी घटना ही मालूम पड़ने लगती है। वे भयंकर-से-भयंकर विपत्ति में भी अपने विश्वास से विचलित नहीं होते। ध्रुव तथा प्रह्लाद के लोकप्रसिद्ध चरित्र इसके प्रमाण है, ये चरित्र तो बहुत प्राचीन हैं, कुछ लोग इनमें अर्थवाद का भी आरोप करते हैं, किंतु महात्मा हरिदास जी की नाम-निष्ठा का ज्वलन्त प्रमाण तो अभी कल-ही-परसों का है। जिन लोगों ने प्रत्यक्ष में उनका संसर्ग और सहवास किया था तथा जिन्होंने अपनी आँखों से उनकी भयंकर यातनाओं का दृश्य देखा था, उन्होंने स्वयं इनका चरित्र लिखा है। ऐसी भयंकर यातनाओें को क्या कोई साधारण मनुष्य सह सकता है? बिना भगवन्नाम में दृढ़ निष्ठा हुए क्या कोई इस प्रकार अपने निश्चय पर अटल भाव से अड़ा रह सकता है? कभी नहीं, जब तक हृदय में दृढ़ विश्वासजन्य भारी बल न हो, तब तक ऐसी दृढ़ता सम्भव ही नहीं हो सकती। बेनापोल की निर्जन कुटिया में वारवनिता का उद्धार करके और उसे अपनी कुटिया में रखकर आत्मा हरिदास शान्तिपुर में आकर अद्वैताचार्य जी के सत्संग में रहने लगे। शान्तिपुर के समीप ही फुलिया नाम के ग्राम में एकान्त समझकर वहीं इन्होंने अपनी एक छोटी-सी कुटिया बना ली। और उसी में भगवन्नाम का अहर्निश कीर्तन करते हुए निवास करने लगे। यह तो हम पहले ही बता चुके हैं कि उस समय सम्पूर्ण देश में मुसलमानों का प्राबल्य था। विशेषकर बंगाल में तो मुसलमानी सत्ता का और मुसलमानी धर्म का अत्यधिक जोर था। इस्लाम धर्म के विरुद्ध कोई चूँ तक नहीं कर सकता था। स्थान-स्थान पर इस्लाम धर्म के प्रचार के निमित्त क़ाज़ी नियुक्त थे, वे जिसे भी इस्लामधर्म के प्रचार में विघ्न समझते, उसे ही बादशाह से भारी दण्ड दिलाते, जिससे फिर किसी दूसरे को इस्लामधर्म के प्रचार में रोड़ा अटकाने का साहस न हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अग्नि में जलाये जाने पर भी जब प्रह्लाद जी न जले तब वे अपने पिता हिरण्यकशिपु से निर्भीक भाव से कहने लगे- श्रीराम नाम के जपने वाले को भला भय कहाँ हो सकता है; क्योंकि सभी प्रकार के आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक तापों को शमन करने वाली रामनामरूपी महारसायन है, उसके पान करके वाले के पास भला ताप आ ही कैसे सकते हैं? हे पिताजी ! प्रत्यक्ष के लिये प्रमाण क्या, आप देखते नहीं, मेरे शरीर के अंगों के समीप आते ही उष्ण-स्वभाव की अग्नि भी जल के समान शीतल हो गयी अर्थात वह मेरे शरीर को जला ही न सकी। राम-नाम का ऐसा ही माहात्म्य है। अनर्घराघव ना.