श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी69. भक्तों के साथ प्रेम-रसास्वादन
प्रेम की उपमा किससे दें। प्रेम तो एक अनुपमेय वस्तु है। स्थावर, जंगम, चर, अचर, सजीव तथा निर्जीव सभी में प्रेम समानरूप से व्याप्त हो रहा है। संसार में प्रेम ही तो ओतप्रोत भाव से भरा हुआ है। जो लोग आकाश को पोला समझते हैं, वे भुले हुए हैं। आकाश तो लोहे से भी कहीं अधिक ठोस है। उसमें तो एक परमाणु भी और नहीं समा सकता, वह सद्वृत्ति और दुर्वृत्तियों के भावों से ठूंस-ठूंसकर भरा हुआ है। प्रेम उन सभी में समानरूप व्याप्त है। प्रेम को चूना-मसाला या जोड़ने वाला द्राविक पदार्थ समझना चाहिये। प्रेम के कारण ये सभी भाव टिके हुए हैं। किंतु प्रेम की उपलब्धि सर्वत्र नहीं होती। वह तो भक्तों के ही शरीरों में पूर्णरूप से प्रकट होता है। भक्त ही परस्पर में प्रेमरूपी रसायन का निरंतर पान करते रहते हैं। उनकी प्रत्येक चेष्टा में प्रेम-ही-प्रेम होता है। वे सदा प्रेम-वारूणी पान करके लोक बाह्य उन्मत्त-से बने रहते हैं और अपने प्रेमी बन्धुओं तथा भक्तों को भी उस वारूणी को भर-भर प्याले पिलाते रहते हैं।उस अपूर्व आसवका पान करके वे भी मस्त हो जाते हैं, निहाल हो जाते हैं, धन्य हो जाते हैं, लज्जा, घृणा तथा भय से रहित होकर वे भी पागलों की भाँति प्रलाप करने लगते हैं। उन पागलों के चरित्र में कितना आनन्द है, कैसा अपूर्व रस है। उनकी मार-पीट,गाली-गलौज, स्तुति-प्रार्थना, भोजन तथा शयन सभी कामों में प्रेम का सम्पुट लगा होने से ये सभी काम दिव्य और अलौकिक- से प्रतीत होते हैं। उनके श्रवण से सहृदय पुरुषों को सुख होता है, वे भी उस प्रेमासव के लिये छटपटाने लगते हैं और उसी छटपटाहट के कारण वे अंत में प्रभु-प्रेम के अधिकारी बनते हैं। महाप्रभु अब भक्तों के साथ लेकर नित्यप्रति बड़ी ही मधुर-मधुर लीलाएँ करने लगे। जब से जगाई-मधाई का उद्धार हुआ और वे अपना सर्वस्व त्यागकर श्रीवास पण्डित के यहाँ रहने लगे, तब से भक्तों का उत्साह अत्यधिक बढ़ गया है। अन्य लोग भी संकीर्तन के महत्त्व को समझने लगे हैं। अब संकीर्तन की चर्चा नवद्वीप में पहले से भी अधिक होने लगी है। निंदक अब भाँति-भाँति से कीर्तन को बदनाम करने की चेष्टा करने लगे हैं। पाठक! उन निन्दकों को निंदा करने दें। आप तो अब गौर की भक्तों के साथ की हुई अद्भुत लीलाओं का ही रसास्वादन करें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिन्होंने सांसारिक भोगों को ही सब कुछ समझ रखा है, जो विषय भोगों में ही आवद्ध हैं, ऐसे अभक्तों को भगवद्रस का आस्वादन करना सर्वथा दुर्लभ है। जिन्होंने अपना सर्वस्व उस सांवले के कोमल अरुण चरणों समर्पित कर दिया है, जो सर्वतोभावेन उसी के बन गये हैं, ऐसे ऐकान्तिक भक्त ही उस रस का आस्वादन कर सकते है।