श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी18. विश्वरूप का गृह-त्याग
धन्याः खलु महात्मानो मुनयः सत्यसम्मताः। बन्धन का हेतु ममत्व है, ममत्व का सम्बन्ध मन से है। जिसने मन से ममत्व को निकाल दिया, वह तो नित्यमुक्त ही है। उसके लिये न कोई अपना है न पराया, वह तो अनेक रूपों में एक ही आत्मा को चारों ओर देखता है, फिर वह संकुचित सीमा में अपने को आबद्ध नहीं रख सकता। विश्वरूप ने निश्चय कर लिया कि मुझे इस गृह को त्याग देना चाहिये। जहाँ पर माता-पिता ही मुझे अपना समझते हैं, जहाँ नित्यप्रति भाँति-भाँति के संसारी प्रलोभनों के आने की सम्भावना है, ऐसी जगह अब अधिक दिन ठहरना ठीक नहीं है। ऐसा निश्चय कर लेने पर एक दिन इन्होंने अपनी माता को एक पुस्तक देते हुए कहा- ‘माँ, यह पुस्तक निमाई के लिये है, जब वह बड़ा हो तो इस पुस्तक को उसे दे देना, भूल मत जाना।’ माता ने सरलता के साथ उत्तर दिया- ‘तब तक तू कहीं चला थोड़े ही जायगा। मैं भूल जाऊँ तो तू तो न भूलेगा। तू ही इसे अपने हाथ से उसे देना और पढ़ाना। तू भी तो अब पण्डित बन गया है। निमाई तुझसे ही पढ़ा करेगा।’ विश्वरूप ने मानसिक भावों को छिपाते हुए कहा- ‘हाँ, ठीक है, मैं रहा तो दे ही दूँगा, किन्तु तू भी इस बात को याद रखना।’ भोली-भाली माता को क्या पता कि मेरा विश्वरूप अब दो ही चार दिन का मेहमान है। दो-चार दिन के बाद फिर इसकी मनमोहिनी सूरत हम लोगों को कभी भी देखने को न मिल सकेगी। माता अपने काम-धंधे में लग गयी। जाड़े का समय है, खूब कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा है। सभी प्राणी जाडे़ के मारे गुड़मुड़ी मारे रात्रि में सो रहे हैं। चारों ओर नीरवता का साम्राज्य है, कहीं भी कोलाहल सुनायी नहीं पड़ता, सर्वत्र स्तब्धता छायी हुई है। ऐसे समय विश्वरूप को निद्रा कहाँ? वे तो भविष्य-जीवन को महान बनाने की ऊहापोह में लगे हुए हैं। घर में एक बार दृष्टि डाली। एक ओर माता सो रही है, उसके पास ही चुपचाप निमाई आँख बन्द किये हुए शयन कर रहे हैं। मिश्र जी दूसरी ओर रजाई ओढ़े खाट पर सो रहे हैं। विश्वरूप ने एक बार खूब ध्यान से पिता की ओर देखा। सिर के बाल पके हुए थे, मुँह पर झुर्रियाँ पड़ी हुई थीं। हमेशा गृहस्थी की चिन्ता करते रहने से उनका स्वभाव ही चिन्तामय बन गया था, सोते समय भी मानो वे किसी गहरी चिन्ता में डूबे हुए हैं। निर्धन वृद्ध के चेहरे की ओर देखकर एक बार तो विश्वरूप अपने निश्चय से विचलित हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वे सत्य की उपासना करने वाले जितात्मा महाभाग महात्मा मुनिगण धन्य हैं, जिन्हें न तो किसी से अनुराग है और न किसी से द्वेष। जो सभी प्राणियों में समानभाव रखकर सभी को समदृष्टि से देखते हैं। श्रीवा. रा. सु. 26/46