श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी159. जगदानन्द जी के साथ प्रेम-कलह
अनिर्दयोपभोगस्य रूपस्य मृदुनः कथम्। प्रेम कलह में कितना मिठास है, इसका अनुभव प्रेमी हृदय ही कर सकता है। यदि प्रेम में कलह पृथक की दी जाय जो उसका स्वाद उसी प्रकार का होगा जिस प्रकार चीनी निकालकर भाँति-भाँति के मेवा डालकर बनाये हुए हलुवे का। चीनी के बिना जिस प्रकार खूब घी डालकर बनाया हुआ हलवा स्वादिष्ट और चित्त को प्रसन्नता प्रदान करने वाला नहीं होता उसी प्रकार जब तक बीच बीच में मधुर मधुर कलह का सम्पुट न लगता रहे, तब तक उसमें निरन्तर रस नहीं आता। प्रणय-कलह प्रेम को नित्य नूतन बनाती रहती है। कलह प्रेमरूपी कभी न फटने वाली चद्दर की सज्जी है, वह उसे समय समय पर धोकर खूब साफ बनाती रहती है। किन्तु यह कलह मधुर भाव के उपासकों में ही भूषण समझी जाती है; अन्य भावों में तो इसे दूषण कहा है। पण्डित जगदानन्द जी को पाठक भूले न होंगे, वे नवद्वीप में श्री निवास पण्डित के यहाँ प्रभु के साथ सदाकीर्तन में सम्मिलित होते थे। संन्यास ग्रहण करके जब प्रभु पुरी में पधारे तो ये भी प्रभु दण्ड लिये एक साधारण सेवक की भाँति उनके पीछे पीछे चले और रास्ते भर ये स्वर्य भिक्षा माँगकर प्रभु तथा अन्य सभी साथियों को भोजन बनाकर खिलाते थे। प्रभु के पहले वृन्दावन ताने पर ये भी साथ चले थे और फिर रामकेलि से ही उनके साथ लौट भी आये थे। प्रभु के नीलाचल में स्थायी रहने पर ये भी वहाँ स्थायी रूप से रहने लगे। बीच बीच में प्रभु की आज्ञा से शची माता के लिये भगवान का प्रसादी वस्त्र और महाप्रसाद लेकर ये नवद्वीप आया जाया भी करते थे। प्रभु के प्रति इनका अत्यन्त ही मधुर भाव था। भक्त इनके अत्यन्त ही कोमल मधुर भाव को देखकर इन्हें सत्यभामा का अवतार बताया करते थे और सचमुच इनकी उपासना थी भी इसी भाव की। ये प्रभु के संन्यास की कुछ भी परवा नहीं करते थे। ये चाहते थे, प्रभु खूब अच्छे अच्छे पदार्थ खायें, सुन्दर सुन्दर वस्त्र पहनें और अच्छे अच्छे स्वच्छ और सुन्दर आसनों पर शयन करें। प्रभु यतिधर्म के विरुद्ध इन वस्तुओं का सेवन करना चाहते नहीं थे। बस, इसी बात पर कलह होती ! कलह का प्रधान कारण यही था कि जगदानन्द प्रभु के शरीर की तनिक सी भी पीड़ा को सहन नहीं कर सकते थे और प्रभु शरीर-पीड़ा की कभी परवा ही नहीं करते थे। जगदानन्द जी अपने प्रेम के उद्रेक में प्रभु से कड़ी बातें भी कह देते और प्रभु भी इनसे सदा डरते-से रहते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तुम्हारा रूप तो दयाभाव से धीरे-धीरे उपभोग करने योग्य अत्यन्त ही मृदुल है, परन्तु चित्त शिरीष पुष्प के बन्धन की भाँति इतना कठोर क्यों है? जैसे शिरीष के फूलों की पंखुडि़याँ कितनी मुलायम, कितनी कोमल तथा सुखस्पर्शयुक्त होती हैं। कामिनियाँ अपने कोमल करकमलों की अत्यन्त ही मुलायम उँगलियों से भी डरते-डरते छूती हैं कि उन्हें कष्ट न हो, तिस पर भी जिसमें वे पंखुडियाँ बँधी रहती हैं, वह बन्धन कितना अधिक कठोर होता है। विधाता की विचित्र गति है। सु. र. भां. 319/1