श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी68. श्रीकृष्ण–लीलाभिनय
उसी समय नित्यानंद जी बड़ाई के भाव को परित्याग करके श्रीकृष्ण-भाव से क्रन्दन करने लगे। उनके क्रन्दन को सुनकर सभी भक्त व्याकुल हो उठे और लम्बी-लम्बी सांसें छोड़ते हुए सब-के-सब उच्च स्वर से हा गौर! हा कृष्ण! कहकर रुदन करने लगे। सभी की रोदनध्वनि से चन्द्रशेखर का घर गूंजने लगा। सम्पूर्ण दिशाएँ रोती हुई-सी मालूम पड़ने लगीं। भक्तों को व्याकुल देखकर प्रभु भक्तों के ऊपर वात्सल्यभाव प्रकट करने के निमित्त भगवान के सिंहासन पर जा बैठे। सिंहासन पर बैठते ही सम्पूर्ण घर प्रकाशमय बन गया। मानों हजारों सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र एक साथ ही आकाश में उदय हो उठे हों। भक्तों की आँखों के सामने उस दिव्यालोक के प्रकाश को सहन न करने के कारण चकाचौंध-सा छा गया। प्रभु ने भगवान के सिंहासन पर बैठे-ही-बैठे हरिदास जी को बुलाया। हरिदास जी लट्ठ फेंककर जल्दी से जगन्माता की गोदी के लिये दौड़े। प्रभु ने उन्हें उठाकर गोद में बैठा लिया। हरिदास महामाया आदि शक्ति की क्रोड में बैठकर अपूर्व वात्सल्यसुख का अनुभव करने लगे। इसके अनन्तर क्रमश: सभी भक्तों की बारी आयी। प्रभु ने भगवती के भाव में सभी को वात्सल्यसुख का रसास्वादन कराया और सभी को अपना अप्राप्य स्तनपान कराकर आनन्दित और पुलकित कराया। इसी प्रकार भक्तों को स्तनपान कराते-कराते प्रात:काल होते ही प्रभु ने भगवती-भाव का संवरण किया। वे थोड़ी देर में प्रकृतिस्थ हुए और उस वेष को बदलकर भक्तों के सहित नित्यकर्म से निवृत्त होने के लिये गंगा किनारे की ओर चले गये। चन्द्रशेखर का घर प्रभु के चले जाने पर भी तेजोमय ही बना रहा और वह तेज धीरे-धीरे सात दिन में जाकर बिलकुल समाप्त हुआ। इस प्रकार प्रभु ने भक्तों के सहित श्रीमद्भागवत की प्राय: सभी लीलाओं का अभिनय किया। |