श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी100. दक्षिण यात्रा का विचार
कति न विहितं स्तोत्रं काकु: कतीह न कल्पिता सचमुच महापुरुषों का स्वभाव बड़ा ही विलक्षण होता है। इनके अभी काम, सभी चेष्टाएँ, सभी व्यवहार लोकोत्तर ही होते हैं। इनमें सभी वैषम्य गुणों का समावेश पाया जाता है। इनका हृदय अत्यन्त ही प्रेममय होता है। एक बार जिसके ऊपर इनकी कृपा हो गयी, जिसने एक क्षण को भी इनकी प्रसन्नता प्राप्त कर ली, बस, समझो कि सम्पूर्ण जीवनपर्यन्त उसके लिये इन महापुरुषों के हृदय में स्थान हो गया। इनका प्रणय स्थायी होता है और कभी किसी पर दैववशात इन्हें क्रोध भी आ गया तो वह पानी की लकीर के समान होता है, जिस समय आया उसी समय नष्ट हो गया। इतने पर भी ये अपने जीवन को संग से रहित बनाये रहते हैं और त्याग की मात्रा इनमें इतनी अधिक होती है प्यारे-से-प्यारे को भी क्षणभर में शरीर से परित्याग कर सकते हैं।[2] इन्हीं सब बातों को तो देखकर महाकवि भवभूति ने कहा है- ‘वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि’ अर्थात ये पुष्प से भी अधिक मुलायम होते हैं, भक्तों की तनिक-सी प्रार्थना पर पिघल जाते हैं और समय पड़ने पर कठोर भी इनते हो जाते हैं कि वज्र भी इनके सामने अपनी कठोरता में कम ठहरता है। ऐसे महापुरुषों का जो अनुकरण करना चाहते हैं, उनकी पीछे दौड़ना चाहते हैं, उनके व्यवहारों की नकल करना चाहते हैं, वे पुरुष धन्यवाद के पात्र तो अवश्य हैं, किन्तु ऐसे विरले ही होते हैं। इन स्वेच्छाचारी स्वच्छन्दगति महानुभावों का अनुकरण या अनुसरण करना हंसी-खेल नहीं है। ये अपने निश्चय के सामने किसी के आग्रह की, किसी की अनुनय-विनय की; किसी की प्रार्थना की परवा ही नहीं करते। जो निश्चय हो चुका सो चुका। साधारण लोगों के स्वभाव में और महापुरुषों के स्वभाव में यही तो अन्तर है, ये ही तो उनकी महानता है। इसी से तो वे जगत-वन्द्य बन सकते हैं। महाप्रभु का हृदय जितना ही कोमलातिकोमल और प्रेमपूर्ण था उनका निश्चय उतना ही अधिक दृढ़, अटल और असन्दिग्ध होता था। वे अपने सत्यसंकल्प के सामने किसी की परवा नहीं करते थे। माघ मास के शुक्लपक्ष में कटवा से संन्यास-दीक्षा लेकर महाप्रभु श्रीअद्वैताचार्य के घर शान्तिपुर में आये थे। वहाँ आठ या दस दिन रहकर फिर आपने पुरी के लिये प्रस्थान किया और मार्ग के सभी पुण्य-तीर्थों को पावन बनाते हुए फाल्गुन मास में श्रीनीलाचल में पहुँचे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाराज प्रतापरुद्र से सार्वभौम कह रहे हैं- मैंने कितनी स्तुति न की, कितना व्यंग न बोला, कितनी बार प्राण छोड़ने की धमकी न दी’ उनके चरण धरकर कितना नहीं रोया; परन्तु फिर भी वे चले गये। इसलिये महाराज ! मेरी तो समझमें यह बात आयी है कि जो स्वभाव से ही महान पुरुष हैं उनके निग्रह और अनुग्रह दोनों ही समान हैं। चैतन्य चन्द्रोदय नाटक अंक 7/2
- ↑ आमरणान्ता: प्रणया: कोपास्तत्क्षणभड्गुरा:। परित्यागाश्च नि:सग्ड़ा भवन्ति हि महात्मनाम्।। सु. र. भां. 48/45