श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी102. वासुदेव कुष्ठीका उद्धार
धन्यं तं नौमि चैतन्यं वासुदेवं दयार्द्रधी:। जीवन में मस्ती हो, संसारी लोगों के मानापमान की परवा न हो, किसी नियत स्थान में नियत समय पर पहुँचने पर दृढ़ संकल्प न हो और किसी विशेष स्थान में ममत्व न हो; बस, तभी तो यात्रा में मजा मिलता है। ऐसे यात्री का जीवन स्वाभाविक ही तपोमय जीवन होगा और प्राणिमात्र के प्रति उसके हृदय में प्रेम तथा ममता के भाव होंगे। असल में ऐसे ही लोगों की यात्रा सफल यात्रा कही जा सकती है। ऐसे यात्री नरदेहधारी नारायण हैं, उनकी पदधूलि से देश पावन बन जाते हैं। पृथ्वी पवित्र हो जाती है। तीर्थों की कालिमा धुल जाती है और रास्ते के किनारे के नगरवासी स्त्री-पुरुष कृतार्थ हो जाते हैं। माँ वसुन्धरे ! अनेक रत्नों को दबाये रहने से तुझे इतना सुख कभी न मिलता होगा जितना कि इन सर्वसमर्थ ईश्वरों के पदाघात से। तीर्थों का तीर्थत्व जो अभी तक ज्यों का त्यों ही अक्षुण्ण बना हुआ है, इसका सर्वप्रधान कारण यही है कि ऐसे महानुभाव तीर्थों में आकर अपने पादस्पर्श से तीर्थों से एकत्रित हुए पापों को भस्म कर देते हैं, जिससे तीर्थ फिर ज्यों- के-त्यों ही निर्मल हो जाते हैं।
हरि हरि बोल, बोल हरि बोल। प्रभु के स्वर में स्वर मिलाकर छोटे-छोटे बच्चे ताली बजा-बजाकर जोरों के साथ नाचते हुए कहने लगते- हरि हरि बोल, बोल हरि बोल। बच्चों के साथ बड़े भी गाने लगते और बहुत-से तो पागलों की तरह नृत्य ही करने लगते। इस प्रकार प्रभु जिधर होकर निकलते उधर ही श्रीहरि नाम की गूँज होने लगती। इस प्रकार पथ के असंख्य स्त्री-पुरुषों को पावन करते हुए प्रभु कूर्माचल या कूर्मम स्थान में पहुँचे। यह तीर्थस्थान आन्ध्रप्रदेश के अन्तगर्त गंजाम जिले में अवस्थित है। कहते हैं कि पूर्वकाल में जगन्नाथ जी जाते हुए भगवान रामानुजाचार्य यहाँ ठहरे थे। पहले तो उन्हें कूर्मभगवान की मूर्ति शिवरुप से प्रतीत हुई और पीछे उन्होंने विष्णुरुप समझकर कूर्मभगवान की सेवा की। पीछे से यह स्थान माध्वसम्प्रदाय वाले महात्माओं के अधिकार में आ गया। दक्षिण-देश में इस तीर्थ की बड़ी भारी प्रतिष्ठा है। प्रभु ने मन्दिर में पहुँचकर कूर्मभगवान के दर्शन किये और वे आनन्द में विह्रल होकर नृत्य करने लगे। प्रभु के अलौकिक नृत्य को देखकर कूर्मनिवासी बहुत-से नर-नारी वहाँ एकत्रित होकर प्रभु के देवदुर्लभ दर्शनों से अपने नेत्रों को सार्थक करने लगे। प्रभु बहुत देर तक भावावेश में आकर नृत्य और कीर्तन करते रहे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिन्होंने दयार्द्र होकर वासुदेव नामक भक्त के गलित कुष्ठ को नष्ट करके उसे सुन्दर रुप प्रदान किया और भगवद्ग्रक्ति देकर उसे सन्तुष्ट कर दिया-ऐसे स्वनामधन्य श्रीचैतन्यदेव को हम प्रणाम करते हैं। श्रीचैत. चरिता. म. ली. 7/1