श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी86. माता को संन्यासी पुत्र के दर्शन
उस शचीदेवी के सौभाग्य की सराहना करने की सामर्थ्य भला किस पुरुष में हो सकती है, जिसके गर्भ से दो संसार-त्यागी, विरागी संन्यासी महापुरुष उत्पन्न हुए? जगन्माता शचीदेवी की कोख ही मातृकोख कही जा सकती है। सौ पुत्रों को जनने वाली शूकरी माताओं की इस संसार में कुछ कमी नहीं है, किन्तु उनका गांव-से-गांव में और मुहल्ले-से-मुहल्ले में भी कोई नाम नहीं जानता, पर गौरांग को उत्पन्न करके शचीमाता जगज्जननी बन गयीं। गौर भक्त संकीर्तन के समय- जय शचीनन्दन गौर गुणाकर। प्रेम परशमणि भाव रससागर।। -आदि संकीर्तन के पदों को गा-गाकर आज भी जगन्माता शचीदेवी के सौभाग्य की सराहना करते हुए उन्हें भगवान की बात कह-कहकर रुदन करते हैं। पुत्रों के संन्यासी होने पर स्वाभाविक मातृस्नेह के कारण जगन्माता शचीदेवी को अपार दु:ख हुआ था। उस दु:खने ही उन्हें जगन्माता के दुर्लभ पद तक पहुँचा दिया। उस महान दु:ख को उन्होंने धैर्य के साथ सहने किया। सच है भगवान जिसे जितना ही भारी दु:ख देते हैं, उसे उतने ही अधिक सहनशक्ति भी प्रदान कर देते हैं। जिसका एक युवावस्थापन्न पुत्र अविवाहित-दशा में ही घर-बार छोड़कर चला गया हो, पति परलोकवासी हो गये हों, जिस पुत्र के ऊपर जीवन की सम्पूर्ण आशाएँ लगी हुई थीं, वही वृद्धावस्था का एकमात्र सहारा, प्राणों से भी अधिक प्रिय पुत्र घर में सन्तानहीन युवती स्त्री को छोड़कर सदा के लिये संन्यासी बन गया हो, उस माता का हृदय बिना फटे कैसे रह सकता था? किन्तु जिसके गर्भ में प्रेमावतार गौरांग ने नौ महीने नहीं, तेरह महीने निवास किया हो, उस वीरप्रसविनी माता के लिये इतनी अधीरता का अनुमान कर ही कौन सकता है? फिर भी मातृस्नेह बड़ा ही अद्भुत होता है, पुत्रवियोग रूपी दु:ख को हंसते हुए सहने करने वाली माता पृथ्वी पर पैदा ही नहीं हुई! मदालसा आदि तो अपवादस्वरूप हैं। देवकी, यशोदा, कौसल्या, देवहूति आदि सभी अवतार जननी माताओें को पुत्रवियोग से विलखना पड़ा। सभी ने अपने करूण-क्रन्दन से स्वाभाविक और सहज मातृस्नेह का परिचय देते हुए सर्वसमर्थ पुत्रों के लिये आँसू बहाये। फिर शचीदेवी किस प्रकार बच सकती थी। वह भी चन्द्रशेखर आचार्य तथा श्रीधर आदि भक्तों से जल्दी ही शान्तिपुर को चलने का आग्रह करने लगी। आचार्य ने उसी समय एक पालकी का प्रबन्ध किया और उस पर माता को चढ़ाकर शान्तिपुर की ओर चलने लगे। माता तो पालकी पर चढ़कर संन्यासी पुत्र को देखने के लिये चल दी, किन्तु पतिप्राणा बेचारी विष्णुप्रिया क्या करती। उसे तो अपने संन्यासी पति के दूर से दर्शन करने तक की भी आज्ञा नहीं थी। वह तो गेरुआ वस्त्र पहने अपने प्राणनाथ को आँख भरकर देख भी नही सकती थी। उसके लिये तो उसके जीवन-सर्वस्व अन्य लोगों की भी अपेक्षा बिराने बन गये, किन्तु यह बात नहीं थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिनका पुत्र वैष्णव है, असल में तो वही माता पुत्रिणी कहलाने योग्य है। अवैष्णव सौ पुत्रों को जानने वाली माता क्यों न हो वह माता शूकरी के समान है। (शूकरी तीसरे ही महीने बहुत-से बच्चे पैदा कर देती है।)