श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी59. भक्तों को भगवान के दर्शन
मल्लानामशनिर्नृणां नरवरः स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान्' श्रीकृष्णभगवान ने जब बलदेव जी के साहित कंस के रंगमण्डप में प्रवेश किया था, तब वहाँ पर विभिन्न प्रकृति के मनुष्य बैठे हुए थे। उन्होंने अपनी-अपनी भावना के अनुसार भगवान के शरीर में भिन्न-भिन्न रूपों के दर्शन किये थे। इसलिये वहाँ के उपस्थित नर-नारियों को अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार नवों रसों का अनुभव हुआ। कोई तो भगवान के रूप को देखकर डर गये, कोई काँपने लगे, कोई घृणा करने लगे, कोई हँसने लगे, किसी के हृदय में प्रेम उत्पन्न हुआ और किसी को क्रोध उत्पन्न हुआ। स्त्रियों को तो वे साक्षात कामदेव ही प्रतीत हुए। किंतु यहाँ प्रभु के प्रकाश के समय सभी एक ही प्रकृति के भगवद्भक्त ही थे। इसलिये प्रभु के महाभाव से सभी को समानभाव से आनन्द ही हुआ, सभी ने उनके प्रकाश के आलोक में सुख का ही अनुभव किया, सभी ने उनमें भगवत्ता के ही दर्शन किये, किंतु सबके इष्ट भिन्न-भिन्न होने के कारण, एक ही भगवान उन्हें विभिन्न भाव से दिखायी दिये। सभी ने प्रभु के शरीर में अपने-अपने इष्टदेव का ही स्वरूप देखा। सबसे पहले बातों-ही-बातों में प्रभु ने श्रीवास पण्डित के ऊपर कृपा की। आपने श्रीवास पण्डित को सम्बोधित करते हुए कहा- ‘श्रीवास! तुम हमारे परम कृपापात्र हो, हम सदा ही तुम्हारी देख-रेख करते हैं। तुम्हें वह घटना याद है, जब देवानन्द पण्डित के यहाँ तुम बहुत-से अन्य शिष्यों के सहित श्रीमद्भागवत कापाठ सुन रहे थे। पाठ सुनते-सुनते तुम बीच में ही भावावेश में आकर मूर्च्छित हो गये थे। उस समय तुम्हारे भावावेश को न तो पण्डित जी ही समझ सके थे और न उनके शिष्य ही समझ सके थे। शिष्य तुम्हें कन्धों पर लादकर तुम्हारे घर पहुँचा गये थे। उस समय मैंने ही तुम्हें होश में किया था, मैंने ही तुम्हारी मूर्च्छा भंग की थी।’ प्रभु के मुख से अपनी इस गुप्त घटना को सुनकर श्रीवास पण्डित को परम आश्चर्य हुआ। उन्होंने यह घटना किसी के सम्मुख प्रकट नहीं की थी। इसके अनन्तर प्रभु अद्वैताचार्य को लक्ष्य करके कहने लगे- ‘आचार्य! तुम्हें उस दिन की याद है जब तुम्हें श्रीमद्भगवद्गीता के निम्न श्लोक पर शंका हो गयी थी- सर्वतःपाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्। और तुम उस दिन बिना ही भोजन किये सो गये थे, इस पर मैंने ही ‘पाणिपादं तत्’ की जगह ‘पाणिपादान्तः’ यह प्रकृत पाठ बताकर तुम्हारी शंका का निवारण किया था।’ इस बात को सुनकर आचार्य ने प्रभु के चरणों में बार-बार प्रणाम किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिस समय भगवान ने अपने बड़े भाई बल्देव जी के साथ कंस के सभा मण्डप में प्रवेश किया; उस समय रंगमण्डप में उपस्थित सभी लोगों को उनकी भवना के अनुसार भगवान के विभिन्न रूप दिखायी दिये। मल्लों को उनका शरीर वज्र के समान, नरों को नरपति के सम्मान, स्त्रियों को मूर्तिमान कामदेव के समान, गोपों को सखा के समान, दुष्टजनों को सजीव दण्ड के समान, अपने माता-पिता को पुत्र के समान, कंस को मृत्यु के समान, अज्ञानियों को विराट के समान, योगियों को परम तत्त्व दके समान और यादवों को परम देवता के समान दिखायी देने लगा। (जाकी रही भावना जैसी। प्रभु मूरति देखी तिन्ह तैसी।।) श्रीमद्भा. 10/43/17
- ↑ गीता 13/13