श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी119. महाराज प्रतापरुद्र को प्रेमदान
राज्यातिमानं सुकुलाभिमानं कबीर बाबा ने सच कहा है- पियका मिलना सुगम है, तेरा चलन न वैसा। सचमुच जहाँ पर्दा है वहाँ मिलन कैसा? जहाँ बीच में दीवार खड़ी है वहाँ दर्शन सुख कहाँ? जहाँ अन्तराय है वहाँ सच्चा सुख हो ही नहीं सकता। जब तक पद प्रतिष्ठा, पैसा-परिवार, पाण्डित्य और पुरुषार्थ का अभिमान है तब तक प्यारे के पास पहुँचना अत्यन्त ही कठिन है। जब तक अहंकृति की गहरी खाईं बीच में खुदी हुई है, तब तक प्यारे के महल तक पहुँचना टेढ़ी खीर हैं। जब तक सभी अभिमानों को त्यागकर निष्किंचन बनकर प्यारे के पादपह्रों के समीप नहीं जाता, तब तक उसके प्रसाद को प्राप्त करने में कोई भी समर्थ नहीं हो सकता। इसीलिये महात्मा कबीरदास जी ने कहा है- चाखा चाहे प्रेम रस, राखा चाहे मान। महाराज प्रतापरुद्र जी जब तक राज्य सम्मान के अभिमान में बने रहे और दूसरे दूसरे आदमियों से संदेश भिजवाते रहे, तब तक वे महाप्रभु की कृपा से वंचित ही रहे। जब उन्होंने सब कुछ छोड़ छाड़कर निष्किंचन भक्त की भाँति प्रभु पादपद्मों का आश्रय ग्रहण किया तब वे महाभाग परम भागवत बन गये और इनकी गणना परम वैष्णव भक्तों में होने लगी। महाप्रभु बलगण्डि की पुष्पवाटिका मे सुखपूर्वक विश्राम कर रहे थे। संकीर्तन और नृत्य की थकान के कारण प्रभु के सभी अंग प्रत्यंग शिथिल हो रहे थे। उनके कमल के समान नेत्र कुछ खुले हुए थे और कुछ मुँदे हुए थे। प्रभु अर्धनिद्रित अवस्था में पड़े हुए शीतल वायु के स्पर्श से परमानन्द का-सा अनुभव कर रहे थे कि इतने में ही सार्वभौम भट्टाचार्य का संकेत पाकर कटकाधिक महाराज प्रतापरुद्र जी प्रभु के दर्शनों के लिये चले। महाराज ने अपने राजसी वस्त्र उतार दिये थे; छत्र, चँवर तथा मुकुट आदि राजचिह्नों का भी उन्होंने परित्याग कर दिया था। एक साधारण से वस्त्र को राजसी ओढ़े हुए नंगे पैरों ही वे प्रभु के दर्शनों के लिये चले। महाराज के पीछे पीछे नियम के अनुसार उनके शरीर रक्षक भी चले, किन्तु महाराज ने उन सबको साथ आने से निवारण कर दिया। वे एकाकी ही प्रभु के निकट जाने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीकृष्णचैतन्यमयी दया के निमित्त जिन्होंने राज्य के इतने बड़े भारी मान और उच्च कुल के अभिमान का (तथा छत्र चामन आदि चिह्रों का) परित्याग कर दिया, वे भक्तवर महाराज प्रतापरुद्र जी हमारे पूजनीय तथा माननीय हैं। प्र. द. ब्र.