श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी22. विद्याव्यासंगी निमाई
अन्या जगद्धितमयी मनसः प्रवृत्ति- प्रायः मेधावी बालक गम्भीर होते हैं। उनके गाम्भीर्य में उनका पाण्डित्य प्रस्फुटित नहीं होता, वे लोगों के सम्मान-भाजन तो अवश्य बन जाते हैं, किन्तु सभी साथी उनसे खुलकर बातें नहीं कर सकते। उनके साथ संलाप करने में कुछ संकोच और भय-सा हुआ करता है। यदि प्रखर बुद्धिवाला छात्र मेधावी होने के साथ ही चंचल, हँसमुख और मिलनसार भी हो तब तो उसका कहना ही क्या? सुहागा मिले सोने में मानो सुगन्ध भी विद्यमान है। ऐसा छात्र छोटे-बड़े सभी छात्रों तथा अध्यापकों का प्रीति-भाजन बन जाता है। निमाई ऐसे ही विद्यार्थी थे। ये आवश्यकता से अधिक चंचल थे ओर वैसे ही अद्वितीय मेधावी। हँसी का तो मानो मुख से सदा फुव्वारा ही छूटता रहता। ये बात-बात पर खूब जोरों से खिलखिलाकर हँसते और दूसरों को भी अपने मनोहर विनोदों से हँसाते रहते। इनके पास मुँह लटकाये कोई बैठ ही नहीं सकता था, ये रोते को हँसाने वाले थे। पं. गंगादास जी की पाठशाला में बहुत बडे़-बड़े विद्यार्थी अध्ययन करते थे, जो इनसे विद्यावृद्ध होने के साथ ही वयोवृद्ध भी थे। 30-30, 40-40 वर्ष के छात्र पाठशाला में थे। इनकी अवस्था अभी 13-14 ही वर्ष की थी, फिर भी ये बड़े छात्रों से सदा छेड़खानी करते रहते। उन छात्रों में बहुत-से तो बड़े ही मेधावी और प्रत्युत्पन्नमति थे, जो आगे चलकर लोक-प्रसिद्ध पण्डित हुए। प्रसिद्ध कवि मुरारी गुप्त, कमलाकान्त, तन्त्र शास्त्र के सर्वमान्य आचार्य कृष्णानन्द उन दिनों उसी पाठशाला में पढ़ते थे। निमाई छोटे-बड़े किसी से भी संकोच नहीं करते थे, ये सभी से भिड़ जाते और उनसे वाद-विवाद करने लगते। विशेषकर ये वैष्णव-विद्यार्थियों को खूब चिढ़ाया करते थे। उनकी भाँति-भाँति से मीठी-मीठी चुटकियाँ लेते और उन्हें लज्जित करके ही छोड़ते थे। मुरारी गुप्त इनसे अवस्था में बड़े थे, किन्तु ये उन्हें सदा चिढ़ाया करते। मुरारी पहले तो बालक समझकर सदा इनकी उपेक्षा करते रहते। जब उन्हें इनकी विलक्षण बुद्धि का परिचय प्राप्त हुआ, तब तो वे इनके साथ खूब बातें करने लगे। ये कहते- ‘मुरारी! अमुक प्रयोग को सिद्ध करो।’ मुरारी उसे ठीक-ठीक सिद्ध करते। ये उसमें बीसों दोष निकालते, उसका कई प्रकार से खण्डन करते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विद्वानों की मनोवृत्ति जगत का हित करने वाली और संसारी लोगों की वृत्ति से विलक्षण ही होती है। उनकी वचनावली की रचना भी कुछ अलौकिक ही होती है। आकृति मनोहर और कृति लोकोत्तर होती है। उनकी सभी बातें ऐसी होती हैं जिनका वाणी के द्वारा वर्णन किया ही नहीं जा सकता। सु. र. भां. 40/25