श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी34. भक्तिस्त्रोत उमड़ने से पहले
तावत्कर्मणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता। भक्ति तथा मुक्ति का प्रधान और मुख्य कारण कर्म ही है। निष्काम और सकाम-भेद से कर्म दो प्रकार का है। सकाम कर्म भुक्तिप्रद है। उससे भूः, भुवः और स्वर्ग- इन तीन ही लोकों के भोग प्राप्त हो सकते हैं और निष्काम कर्म के द्वारा आत्मशुद्धि होकर साधक भक्ति तथा मुक्ति का अधिकारी बनता है। जो हृदय-प्रधान साधक हैं उन्हें निष्काम कर्मों के करते रहने से साधु-महात्माओं में प्रीति उत्पन्न होती है। महात्माओं के अधिक संसर्ग में रहने से उन्हें भगवत-कथाओं में श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है। भगवत-कथाओं में श्रद्धा होने से भगवद्गुणों में रति हो जाती है। भगवद्गुणों में रति होने के बाद भक्ति उत्पन्न होती है, भक्ति ही अन्तिम साध्य वस्तु है, उसे ही पराकाष्ठा या परा गति कहते हैं। जो मस्तिष्क-प्रधान साधक होते हैं, उन्हें निष्काम कर्मों के द्वारा आत्मशुद्धि होकर भगवद्भक्ति प्राप्त होती है, फिर संसारी विषयों से वैराग्य होता है, वैराग्य से उन्हें ज्ञान की इच्छा उत्पन्न होती है और ज्ञान के द्वारा वे मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं। मुक्ति ही प्राणिमात्र का चरम लक्ष्य है। यही जीवों की एकमात्र साध्य वस्तु है। इसीलिये मुक्ति तथा भक्ति का प्रधान हेतु वर्णाश्रमविहित कर्म ही है। जब तक भगवत-कथाओं में पूर्णरूप से श्रद्धा उत्पन्न न हो जाय, बिना भगवत-कथा श्रवण किये चैन ही न पड़े अथवा जब तक संसारी विषयों से पूर्णरीत्या वैराग्य न हो जाय, चित्त सर्वदा इन संसारी भोगों से हटकर एकान्तवास के लिये लालायित न बना रहे तब तक सभी प्रकार के मनुष्यों को अपने-अपने अधिकारानुसार कर्तव्य-कर्मों को करते ही रहना चाहिये। जो श्रद्धा तथा वैराग्य के पूर्व ही अज्ञान के वशीभत होकर कर्मों का त्याग कर देते हैं, वे नारकीय जीव हैं, वे स्वयं कर्म-त्यागरूपी पाप के द्वारा अपने लिये न करके मार्ग को परिष्कृत करते हैं। ऐसे पुरुष न तो भक्त बन सकते हैं और न ज्ञानी, वे इस संसार-चक्र में ही पड़े घूमते रहते हैं। कुछ ऐसे भी नित्यभक्त वा जीवन्मुक्त महापुरुष होते हैं, जिन्हें फिर से कर्म करने की आवश्यकता नहीं होती, वे पहले से ही मुक्त अथवा भक्त होते हैं। शुक-सनकादि जन्म से ही मुक्त थे। नारदादि पहले से ही भक्त होकर उत्पन्न हुए, इनके लिये किसी प्रकार के विशेष कर्मों के अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं हुई। इनमें आरम्भ से ही वैराग्य तथा भक्ति विद्यमान थी। इसीलिये शुक-सनकादि आरम्भ से ही ज्ञानी बनकर स्वेच्छापूर्वक विचरण करते रहे और नारदादि सदा हरि-गुण गान करते हुए सभी लोकों को पावन बनाते फिरे। अतएव इनके लिये आरम्भ से ही कोई कर्तव्य-कर्म नहीं था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वर्णा श्रम विहित कर्मो को तब तक करते ही रहना चाहिये जब तक उनके प्रति पूर्ण रूप से वैराग्य न हो जाये अथवा भगवान की कथा के श्रवण में जब तक पूर्ण रूप से दृढ़ भक्ति न हो जाये। तात्पर्य यह कि वर्णा श्रम विहित कर्मो के करने के दो ही हेतु हैं या तो उनके द्वारा वैराग्य उत्पन्न होकर ज्ञान हो और ज्ञान के द्वारा मुक्ति अथवा भगवान के कथा कीर्तन में दृढ़ श्रद्धा द्वारा रति हो जाये और रति से भक्ति की प्राप्ति हो। श्रीमद्भा. 11/20/9